History
लुहाच वंश का इतिहास
लुहाच वंश का इतिहास लगभग 1500 वर्ष पुराना है इसकी उत्पत्ति राजपूत चौहान वंश से सन 865 ईस्वी मे गांव जड़वा जिला चरखी दादरी हरियाणा मे हुई थी क्योकि इस वंश की उत्पत्ति चौहान वंश से हुई थी इसलिए हमें पहले चौहान वंश की उत्पत्ति और उसके इतिहास की बारे मे जानना अति आवश्यक है। चौहान वंश चौहान वंश की उत्पत्ति ऋषियो द्वारा आबू पर्वत पर किए गए यज्ञ के अग्निकुंड मे से हुयी थी आबू पर्वत (माउण्ट आबू) राजस्थान का एकमात्र पहाड़ी नगर है इस शहर का पुराना नाम अर्बुदांचल था , इस स्थान पर साक्षात भगवान शिव ने भील दंपत्ति आहुक और आहूजा को दर्शन दिए थे ।माउंट आबू चौहान साम्राज्य का हिस्सा रहा बाद में सिरोही के महाराजा ने माउंट आबू को राजपूताना मुख्यालय के लिए अंग्रेजों को पट्टे पर दे दिया। ब्रिटिश शासन के दौरान माउंट आबू मैदानी इलाकों की गर्मियों से बचने के लिए अंग्रेजों का पसंदीदा स्थान था। ऐसा माना जाता है कि पांचवी सदी के अंत मे परसुराम ने सब क्षत्रियो को मार डाला था इससे सब ब्रह्मण असहाय हो गए फिर सब ब्रह्मण ऋषि वत्स कि पास गए और असुरो से रक्षा करने की प्रार्थना की। इस पर ऋषि वत्स ने माउन्ट आबू जो कि आज राजस्थान के जिला सिरोही गुजरात सीमा के नजदीक स्थित अरावली की पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी पर बसा एक पहाड़ी स्थान है को यज्ञ करने के लिए चुना यज्ञ के अग्निकुंड से तीन क्षत्रिय पैदा हुए इनके नाम क्रमशः परतिहार , चालुक्य और परमार थे आगे चलकर इन्ही के नाम पर राजपूत के तीन वंश बने ये है परतिहार से परिहार , चालुक्य से सोलंकी और परमार से परमार। ऋषि ने इन यौद्धाओ से असुरो का संहार करने को कहा तत्पश्चात तीनो यौद्धा बहुत बहादुरी से लड़े लकिन सफलता नहीं मिली । फिर ऋषि ने दोबारा हवन किया और इस बार चौथा यौद्धा क्षत्रिय अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ इसका नाम चाहमान रखा गया और चाहमान को असुरो का विनाश करने के लिए भेजा गया चाहमान ने सभी असुरो का सफाया कर दिया इसी यौद्धा के नाम से आगे चलकर चौहान वंश की उत्पत्ति हुई इस प्रकार राजपूतो के चार वंश मुख्यत: चौहान , सोलंकी , परमार और चालुक्य हुए। इसमें से चौहान वंश सबसे शक्तिशाली और लम्बे समय तक शासन करने वाला वंश है जिसका शासन अधिकतर राजस्थान के भू - भाग पर छठी शताब्दी से बारहवीं सताब्दी तक रहा जबकि परमारो ने दिल्ली व् बुंदेलखंड , सोलंकी ने मालवा और चालुक्य ने गुजरात के भू - भाग पर अधिकतर राज किया चाहमान को एक दैत्य शक्ति माना गया है इसका राज 515 ईस्वी से 550 ईस्वी तक माना जाता है इन्होने माउंट आबू पर्वत तथा आसपास के इलाकों से असुरो का सफाया कर अपना अधिपत्य स्थापित किया चाहमान ने कुछ दिन नागौर मे अपना जीवन व्यतीत किया उसके बाद वह नलियासर पहुंचा जो साम्भर और नटैना के बीच प्राचीन आबादी वाला शहर है। यहाँ पर हूणों का शासन था चाहमान ने 515 ईस्वी तक सभी हूणों को मार भगाया ऐसा अनुमान है की चाहमान का शासनकाल 551 ईस्वी तक रहा होगा ।
ऐसा माना जाता है कि हुण भी शिव के परम भक्त थे ठीक वैसे ही जैसे राम और रावण आलताई हुण रावण के अनुयायी माने जाते है। चाहमान और हूणों के बीच होने वाले युद्धों मे जान- माल की भरी क्षति हुई और नलियासर शहर पूरी तरह से उजाड़ चुका था। इसके बाद चाहमान के पुत्र वासुदेव ने शाकम्भरी नाम से अपनी राजधानी बनाई उस समय इस स्थान पर झुपे (झोपडी) के आलावा कुछ भी नहीं था सिर्फ था तो दो कुण्ड एक देवयानी और दूसरा शर्मिष्ठा जो की आज भी विराजमान है राजा ने इसके समीप ही अपना दुर्ग बनवाया लेकिन आज इसके अवशेष भी नहीं बचे है।वासुदेव के बाद उनके पुत्र समान्तराज ने गद्दी सम्भाली उनको माणिक देव की पदवी मिली हुई थी ऐसा माना जाता है कि उनके समय से ही साम्भर झील से नमक का व्यापार शुरू हुआ था वासुदेव का शासनकाल सन 684 ईस्वी से 709 ईस्वी तक रहा वासुदेव के दो पुत्र नरदेव अथवा नृप तथा दूसरा अजयपाल अथवा अजयराज थे पिता की मृत्यु के बाद नरदेव को बड़ा होने के कारण राजगद्दी पर बैठाया गया उसका शासनकाल सन 709 से 721 ईस्वी तक रहा हलाकि साम्भर राज्य की राजधानी थी लकिन फिर भी अज्ञात कारणों से नरदेव ने अपना शासनकाल नागौर में रहकर ही संभाला। नरदेव के एक पुत्र था संकट सिंह जिसका जन्म सन 710 ईस्वी में नागौर में हुआ था नरदेव की मृत्यु के समय राजकुमार संकट सिंह की उम्र मात्र 11 वर्ष थी नाबालिग होने के कारण राजसिंहासन नरदेव के छोटे भाई अजयराज को सौपा गया अजयराज का शासनकाल सन 721 से 734 ईस्वी तक रहा। इस परकार शाकम्भरी (शाम्भर) पर छठी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक 35 राजाओ ने राज किया पृथ्वीराज चौहान का पोता हरिराज चौहान इस वंश का अंतिम राजा था पृथ्वीराज चौहान इस वंश का सबसे परतापी राजा था पृथ्वीराज चौहान इस वंश का सबसे परतापी राजा था इन राजाओ का कार्यकाल इस परकार रहा :- नीचे छठी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक के चौहान वंश के राजाओ की सूची दी गयी है:-
1. चाहमान 2. वासुदेव (लगभग छटी शताब्दी) 3. सामन्तराज (ल. 684-709 ईस्वी) 4. नरदेव (ल. 709–721 ईस्वी) 5. अजयराज प्रथम (ल. 721–734 ईस्वी), उर्फ जयराज या अजयपाल 6. विग्रहराज प्रथम (ल. 734–759 ईस्वी) 7. चंद्रराज प्रथम (ल. 759–771 ईस्वी) 8. गोपेंद्रराज (ल. 771–784 ईस्वी) 9. दुर्लभराज प्रथम (ल. 784–809 ईस्वी) 10. गोविंदराज प्रथम (ल. 809–836 ईस्वी), उर्फ गुवाक प्रथम 11. चंद्रराज द्वितीय (ल. 836-863 ईस्वी) 12. गोविंदराजा द्वितीय (ल. 863–890 ईस्वी), उर्फ गुवाक द्वितीय 13. चंदनराज (ल. 890–917 ईस्वी) 14. वाक्पतिराज प्रथम (ल. 917–944 ईस्वी); उनके छोटे बेटे लक्ष्मण सिंह उर्फ लाखणसी महाराज ने नद्दुल चाहमान शाखा की स्थापना की। 15. विंध्यराज ( ल. 944 ईस्वी ) 16. सिंहराज (ल. 944–971 ईस्वी) 17. विग्रहराज द्वितीय (ल. 971–998 ईस्वी) 18. दुर्लभराज द्वितीय (ल. 998–1012 ईस्वी) 19. गोविंदराज तृतीय (ल. 1012-1026 ईस्वी) 20. वाक्पतिराज द्वितीय (ल. 1026-1040 ईस्वी) 21. विर्याराम (ल. 1040 ईस्वी) 22. चामुंडराज चौहान (ल. 1040-1065 ईस्वी) 23. दुर्लभराज तृतीय (ल. 1065-1070 ईस्वी), उर्फ दुआला 24. विग्रहराज तृतीय (ल. 1070-1090 ईस्वी), उर्फ विसला 25. पृथ्वीराज प्रथम (ल. 1090–1110 ईस्वी) 26. अजयराज द्वितीय (ल. 1110-1135 ईस्वी), राजधानी को अजयमेरु (अजमेर) ले गए। 27. अर्णोराज चौहान (ल. 1135–1150 ईस्वी) 28. जगददेव चौहान (ल. 1150 ईस्वी) 29. विग्रहराज चतुर्थ (ल. 1150–1164 ईस्वी), उर्फ विसलदेव 30. अमरगंगेय (ल. 1164–1165 ईस्वी) 31. पृथ्वीराज द्वितीय (ल. 1165–1169 ईस्वी) 32. सोमेश्वर चौहान (ल. 1169 -1178 ईस्वी) पृथ्वीराज चौहान के पिता 33. पृथ्वीराज तृतीय (ल. 1178–1192 ईस्वी), इन्हें पृथ्वीराज चौहान के नाम से जाना जाता है 34. गोविंदाराज चतुर्थ (ल. 1192 ईस्वी); मुस्लिम अस्मिता स्वीकार करने के कारण हरिराज द्वारा निर्वासित; रणस्तंभपुरा के चाहमान शाखा की स्थापना की। 35. हरिराज (ल. 1193–1194 ईस्वी) इतिहासविदों का मत है कि, चौहानवंशीय जयपुर के साम्भर तालाब के समीप में, पुष्कर प्रदेश में और आमेर-नगर में निवास करते थे। वे उत्तरभारत में विस्तृत रूप से फैले हैं। वर्तमान मे उत्तरप्रदेश राज्य के मैनपुरी बिजनौर जिले में अथवा नीमराणा राजस्थान में बहुधा निवास करते हैं। और नीमराणा से ये उत्तरप्रदेश ओर उत्तर हरियाणा में फ़ैल गये । चौहान क्षत्रिय अपने आप को वचस चौहान भी कहते हैं। चौहान वंश का शासन मध्यकालीन भारत मे 515 ईस्वी से 1194 ईस्वी तक माना जाता है इस दौरान इनका राजनैतिक दायरा मध्य राजस्थान और पूर्व व् दक्षिण के कुछ भू - भाग पर रहा था इनके राज्यों के नाम इस परकार से है :-
1. अहिछत्रपुरा जिला नागौर (राजस्थान)
2. शाकम्भरी (शाम्भर) जिला जयपुर (राजस्थान)
3. ददरेवा जिला सीकर (राजस्थान)
4. अजयमेरु जिला अजमेर (राजस्थान)
5. नद्दुल (नाडोल ) जिला पाली (राजस्थान)
6. लता जिला भड़ोच (गुजरात )
7. धौलपुर जिला धौलपुर (राजस्थान)
8. प्रतापगढ़ जिला प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)
9. जालौर जिला जालौर (मध्य प्रदेश )
10. रणथम्भोर जिला सवाईमाधोपुर (राजस्थान)
11. दिल्ली
चौहान वंश और नौवीं सदी के मध्यकाल मे लुहाच वंश की उत्पत्ति और उसके बाद का इतिहास कई ऐतिहासिक ग्रंथो, अभिलेखों तथा विभिन्न किस्म के लेखो पर आधारित है जो कि इस प्रकार से है :-
1. बिजौला शिलालेख :- यह शिलालेख शाकम्भरी नरेश सोमेश्वर के मंत्री ने गांव बिजौला जिला भीलवाड़ा (राजस्थान) के पार्शवनाथ मंदिर में एक शिला पर संस्कृत भाषा में लिखा गया है इसमें शाकम्भरी चौहानो के शासनकाल व् समकक्ष राजाओ के बारे में बताया गया है इतिहासकार इस शिलालेख के तथ्यो को काफी हद तक सही मानते है यह लेख ११७० ईस्वी में लिखा गया था ।
2. सुन्धा शिलालेख:- यह लेख 1262 ईस्वी में लिखा गया इसमें जालौर के चौहान शासन को दर्शाया गया है ।
3. अच्छलेश्वर मंदिर लेख :- यह मंदिर माउंटआबू पर्वत पर स्थित है इसमें चारो अग्निपुत्र चाहमान, परतिहार, चालुक्य और परमार की अग्निकुंड से उत्पत्ति से लेकर शाकम्भरी चौहान की वंशावली की ऊपर प्रकाश डाला गया है यह लेख 1320 ईस्वी में लिखा गया था । 4. हमीर महाकाव्य :- यह महाकाव्य १५वी सदी में हमीर द्वारा लिखा गया जिसमे रणथम्भोर के चौहान शासनकाल पर प्रकाश डाला गया है। 5. पृथ्वीराज रासो :- इस महाकाव्य की रचना पृथ्वीराज चौहान के राज कवि चन्दरबरदाई ने शुरू की थी और उसकी मृत्यु की बाद उसके पुत्र जायंक ने पूरा किया इस महाकाव्य में अधिकतर पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल, कन्नौज के राजा जयचन्द की पुत्री संयोगिता से प्रेम प्रसंग, राजा जयचन्द से युद्ध, तराइन की प्रथम व् द्वितीय लड़ाई , चौहान वंश का पतन तथा मोहम्द गौरी की ऊपर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थ पर इतिहासकारो के काफी मतभेद रहे है।
जब तक कागज कलम व् स्याही की खोज नहीं हुई थी उस समय इतिहास विभिन्न प्रकार के माध्यम से मौखिक सुनाया जाता था जैसे :- आल्हा, रागनी, कहानी, कविता, दोहे आदि। यह विधि पीढ़ी दर पीढ़ी अभी तक चली आ रही है इसके उपरान्त निम्नलिखित तरीके इतिहास को आगे बढ़ाने में इस्तेमाल किये गए जो इस प्रकार है :-
मौखिक:- कहानी, श्लोक व् कविता की रूप में
तारपत्र:- सतयुग में
भोजपत्र:- द्वापर और त्रेता युग में
ताम्रपत्र :- कलियुग में
ताडपत्र :- कलियुग में
रस्सी पत्र:- सनी को गलाकर दीवार पर आकार देकर
कागज पत्र:- मध्यकाल से लेकर आज तक
इंटरनेट :- वर्तमान में
इसके अलावा भारतवर्ष में सदियों से काम के आधार पर वर्ण संस्था चली आ रही है इसी के तहत हमारे समाज के कुछ लोगो ने इतिहास को लिखने का जिम्मा सम्हाला इस वर्ग के लोगो को विभिन्न क्षेत्रों में अलग - अलग नाम से जाना जाता है जैसे:- राव साहब, जग्गा, भाट, पड़िया आदि। ये लोग आज भी इसी वयवसाय से जुड़े है। लुहाच गोत्र का इतिहास भी एक परिवार ने कलमबद्ध करके रखा हुआ है यह परिवार पहले हरियाणा के महेन्दरगढ़ जिले के एक छोटे से गांव श्यामपुरा में रहता था श्यामपुरा गांव वर्तमान में जिला चरखी दादरी में है। यह परिवार भूतकाल में किन्ही विपरित परिस्थितयो के कारणवश राजस्थान के अजमेर जिले के किशनगढ़ कस्बे में विस्थापित हो गया था। इनके पास लुहाच गोत्र का पूरा इतिहास जिसमे लुहाच गोत्र की चौहान वंश से उत्पत्ति, चौहान राजघराने से लुहाच गोत्र के पूर्वजो का विस्थापन व् हर परिस्थिति का ब्यौरा कलमबद्ध करके सुरक्षित रखा गया है इन्ही उपरोक्त तत्थों के आधार पर लुहाच वंश के इतिहास को लिखा जा रहा है ।
लुहाच वंश
जैसा कि उपरोक्त कथन के अनुसार आप सभी जानते है कि लुहाच वंश की उत्पत्ति चौहान वंश के राजघराने से हुई है जिनका शासन छठी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक भारतवर्ष के विभिन क्षेत्रों पर रहा। नीचे लुहाच वंश के पूर्वजो का माउंटआबू से लेकर नांधा तक का विस्थापन दिया गया है :-
माउण्ट आबू:- राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित अरावली की पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी पर बसा माउंट आबू प्राचीन काल से ही साधु संतों का निवास स्थान रहा है।एक कहावत के अनुसार आबू नाम हिमालय के पुत्र अर्बुदांचल के नाम पर पड़ा था। अर्बुदांचल एक शक्तिशाली सर्प था, जिसने एक गहरी खाई में भगवान शिव के पवित्र वाहन नंदी बैल की जान बचाई थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार हिन्दू धर्म के तैंतीस करोड़ देवी देवता इस पवित्र पर्वत पर भ्रमण करते हैं। कहा जाता है कि त्रेता युग में महान संत वशिष्ठ ने पृथ्वी से असुरों के विनाश के लिए यहां यज्ञ का आयोजन किया था।यहाँ की गुफा में एक पदचिहृ अंकित है जिसे लोग भृगु ऋषि का पदचिह् मानते हैं। माउंट आबू हिन्दू और जैन धर्म का प्रमुख तीर्थस्थल है।कहा जाता है कि जैन धर्म के चौबीसवें र्तीथकर भगवान महावीर भी यहां आए थे। तभी से माउंट आबू जैन अनुयायियों के लिए एक पवित्र और पूजनीय तीर्थस्थल बना हुआ है।माउंट आबू चौहान साम्राज्य का हिस्सा रहा है।1192ईस्वी के दौरान आबू का शासन राजा जेतसी परमार भील के हाथो में था , बाद में माउंट आबू भीमदेव द्वितीय के शासन का क्षेत्र बना ब्रिटिश शासन के दौरान सिरोही के महाराजा ने माउंट आबू को राजपूताना मुख्यालय के लिए अंग्रेजों को पट्टे पर दे दिया।
त्रेता युग में ऋषि वशिष्ठ द्वारा किये गए हवन के अग्निकुंड से उत्पन्न चाहमान से लेकर छठी शताब्दी से पहले तक चाहमान के वंशज करोड़ो की संख्या में उत्तरी भारत में हुए है उस समय तक इनको राजपूत चौहान के नाम से नहीं जाना जाता था छठी सदी के शरुआत में जब सूर्यवंशोत्पन्न इछवाकुवंशी राजा विरोचन के पुत्र चाहमान (संस्कृत शब्द) पैदा हुए। इनके पिता जो कि टोंक के शासक थे हूणों द्वारा मार दिए गए थे चाहमान ने अपने भाई धनञ्जय की साहयता से हूणों को मारकर अपने पिता की मौत का बदला लिया और सन 515 ईस्वी में पहली चौहान राजवंश की नीव नागौर में रखी। कुछ दिन नागौर में रहने की बाद वह नई राजधानी बनाने की मकसद से शहर नलियासर पहुचे और शाम्भर झील की किनारे साम्भर नाम की राजधानी बनाई यहाँ पर उन्होंने 551 ईस्वी तक शासन किया। राजा विरोचन से नांधा गांव बसने तक की लुहाच वंशावली निम्न प्रकार से है :-
चाहमान के बाद सन 551 ईस्वी में वासुदेव साम्भर (शाकम्भरी) का राजा बना। उन्होंने अपने शासनकाल में साम्भर राज्य से पूर्ण रूप से हूणों का सफाया कर दिया राजा वासुदेव चौहान वंश के संस्थापक भी माने जाते है उनके द्वारा शासित क्षेत्र सपादलक्ष कहलाता था वासुदेव का शासन 551 ईस्वी से 627 ईस्वी तक बताया गया है उनकी मृत्यु के बाद 684 ईस्वी तक का इतिहास में कही लेखा जोखा नहीं मिलता है। वासुदेव के बाद सामन्त अथवा माणिक्यराज साम्भर का राजा बना जिसका शासनकाल 684 ईस्वी से 709 ईस्वी तक रहा बिजोलिया शिलालेख व् स्थानीय निवासियों के मुताबिक माणिक्यराज वासुदेव के पुत्र थे
चाहमान के बाद सन 551 ईस्वी में वासुदेव साम्भर (शाकम्भरी) का राजा बना। उन्होंने अपने शासनकाल में साम्भर राज्य से पूर्ण रूप से हूणों का सफाया कर दिया राजा वासुदेव चौहान वंश के संस्थापक भी माने जाते है उनके द्वारा शासित क्षेत्र सपादलक्ष कहलाता था वासुदेव का शासन 551 ईस्वी से 627 ईस्वी तक बताया गया है उनकी मृत्यु के बाद 684 ईस्वी तक का इतिहास में कही लेखा जोखा नहीं मिलता है। वासुदेव के बाद सामन्त अथवा माणिक्यराज साम्भर का राजा बना जिसका शासनकाल 684 ईस्वी से 709 ईस्वी तक रहा बिजोलिया शिलालेख व् स्थानीय निवासियों के मुताबिक माणिक्यराज वासुदेव के पुत्र थे ऐसा माना जाता है कि उनके समय से ही साम्भर झील से नमक का व्यापार शुरू हुआ था। माणिक्यराज के दो पुत्र थे बड़ा नरदेव व् छोटा अजयराज पिता के देहान्त के बाद नरदेव साम्भर (शाकम्भरी) का राजा बना कुछ अज्ञात कारणों से उन्होंने नागौर में रहकर ही साम्भर का शासन चलाया उनका शासनकाल 709 ईस्वी से 721 ईस्वी तक चला । माणिक्यराज के पुत्र नरदेव के सन 710 ईस्वी में नागौर में ही उनके संकटदेव नामक राजकुमार पैदा हुआ पिता के देहान्त के समय संकटदेव नाबालिग था इसलिए नरदेव के छोटे भाई अजयराज को सिंहासन मिला अजयराज ने साम्भर में रहकर शासन किया जबकि नरदेव का परिवार नागौर में ही रहा। सन 735 ईस्वी में संकटदेव की शादी चित्तौड़गढ़ की राजकुमारी से की गयी संकटदेव का बड़ा बेटा रामदास 740 ईस्वी में और छोटा बेटा राम सिंह 750 ईस्वी में नागौर में ही पैदा हुए उस ज़माने में पाली व् नागौर के इलाकों में मेदो व् भील जाति की लोगो का दबदबा था और मेदो ने काफी हुड़दंग मचा रखा था। एक बार 778 ईस्वी में संकटदेव के परिवार की मेदो के साथ भंयकर लड़ाई हुई जिसमे मेदो के कई योद्धा जिसमे भल्ला, मेवा, सेवा और खीवा मुख्य है मारे गए । बैर और दुश्मनी के कारण अगले दो साल बाद सन 780 ईस्वी में संकटदेव अपने परिवार सहित नागौर से अपनी ससुराल चित्तौड़गढ़ आ गए उस समय संकटदेव की उम्र 70 वर्ष थी और रामदास की 40 वर्ष तथा राम सिंह की 30 वर्ष थी। संकटदेव के दोनों पुत्रो की शादी नागौर में रहते हुए ही हो गयी थी चित्तौड़गढ़ में सन 800 ईस्वी में 90 वर्ष के आयु में संकटदेव की मृत्यु हो गयी।
संकटदेव के देहान्त के बाद उसके परिवार का अपनी ननिहाल में कुछ पारिवारिक झगड़ा हो गया इसलिए सन 802 ईस्वी में रामदास और राम सिंह सपरिवार चित्तौड़गढ़ से अपने पूर्वजो के राजधानी साम्भर में आ गए। साम्भर में आकर उनको राजघराने से कोई खास मदद नहीं मिली और पानी भी खरा मिला इसलिए छोटा भाई वहाँ से अजयमेरु (अजमेर ) आ गया यहाँ पर अजयमेरु के पास ही आनासागर नाम की मीठे पानी की झील भी मिल गयी बड़ा भाई रामदास साम्भर में ही रहा। इस प्रकार सन 822 ईस्वी में दोनों भाई हमेशा- हमेशा के लिए अलग हो गए ऐसा माना जाता है कि रामदास का परिवार बाद में गोगामेड़ी चला गया और आगे चलकर उसके वंशज लांच व् लवाइच कहलाए जो अधिकतर वर्तमान में राजस्थान में निवास करते है।
राम सिंह के बेटे लाल सिंह का जन्म चित्तौड़गढ़ में 780 ईस्वी में हुआ था जब राम सिंह साम्भर से अजमेर आए थे उस समय उनकी उम्र 42 वर्ष थी उसके दोनों पुत्र बरदेश राम और लुंगाराम साम्भर में ही पैदा हुए थे अजमेर में रहते हुए ही राम सिंह को माता शाकम्भरी ने एक रात दर्शन दिए और बताया कि जब तक आप अजमेर में रहेंगे तब तक आप का वंश नहीं चेलगा राम सिंह धार्मिक प्रवर्ति के इन्सान थे इसलिए पारिवारिक मोह के कारण उन्होंने 830 ईस्वी में अजमेर को छोड़कर ददरेवा आ गए। ददरेवा भी उस समय शाकम्भरी चौहान के साम्राज्य का हिस्सा था और आगे चलकर बारहवीं सदी में गोगा चौहान जो कि भक्त होने के साथ - साथ एक यौद्धा भी थे उनकी राजधानी भी रही थी । ददरेवा आज के राजस्थान के सीकर जिले का एक छोटा सा क़स्बा है ददरेवा में आकर भी उन्हें खारा पानी मिला ददरेवा में राम सिंह का परिवार दो साल रहा यहाँ पर भी राम सिंह को माता शाकम्भरी ने दर्शन दिए और कहा कि तू चौहान गोत्र बदली कर ले नहीं तो तू जहाँ भी जायेगा खारा पानी ही मिलेगा इसका समाधान गोत्र बदली ही है।
राम सिंह ने बात नहीं मानी और 832 ईस्वी में राम सिंह सपरिवार ददरेवा से सिद्धपुर आ गया यहाँ आठ साल के बाद सन 840 ईस्वी में राम सिंह की मृत्यु हो गयी राम सिंह कि मृत्यु के बाद माता लाल सिंह को दर्शन देने लगी और चौहान गोत्र छोड़ने के याद दिलायी। फिर लाल सिंह अपने दोनों पुत्रो को लेकर सपरिवार सन 860 ईस्वी में सिद्धपुर से जड़वा गांव में आ गए यहाँ आकर उन्होंने माता दर्शन के अनुसार 860 ईस्वी में ही चौहान गोत्र त्यागकर अपने नाम से मिलता जुलता नाम लुहाच रख लिया और साथ ही जाति राजपूत से जाट अपना ली इस प्रकार जड़वा में लुहाच वंश के उत्पत्ति सन 860 ईस्वी में लाल सिंह द्वारा की गयी। इसका कारण भी खारा पानी से छुटकारा पाना माना जाता है जड़वा में उस समय तोमर गोत्र के राजपूत रहते थे उनको राजपूत से जाट में जाति परिवर्तन अच्छा नहीं लगा और राजपूत उन पर गांव छोड़ने का दवाब डालने लगे लाल सिंह जड़वा छोड़ने को तैयार नहीं हुए और अन्त में लाल सिंह के परिवार और राजपूतो में दुश्मनी हो गयी आये दिन दोनों पक्षों में संघर्ष होने लगे। एक बार लाल सिंह के परिवार और राजपूतो के बीच भयंकर युद्ध हुआ चौहान परिवार अकेला था जबकि राजपूत संख्या में ज्यादा थे। फिर दोनों पक्षों में तलवार व भालों से भयानक लड़ाई हुई। लाल सिंह खुद काफी वृद्ध हो चुका था। उसके दो बेटे लूंगा राम व बरदेश राम और दो पोत्र सेदो राम व बाला राम के अलावा दो स्त्रियाँ भी थी जिन्होंने लड़ाई में हिस्सा लिया। लाल सिंह का बड़ा बेटा बरदेश राम बहुत ही बहादुर, निडर व बलवान था। उसने अकेले में कई लोगों को मार डाला और आखिरी सांस तक लड़ता रहा और परिवार के नाम पर शहीद हो गया। गांव की स्त्रियाँ व बच्चे जो बचे थे गांव छोड़ कर भाग गये। गांव उजड़ गया। तब से सदियों तक आस पास के गांव भी इस गांव को उजड़ गांव के नाम से पुकारने लगे। जड़वा गांव में शहीद दादा बरदेश की स्मृति में आज भी एक छत्री विद्यमान है। यह छत्री चौहान (हमारे लाल सिंह परिवार) की ऐतिहासिक यात्रा गाथा का सबूत है।आज भी जड़वा के लोग बरदेश राम की शौर्य गाथा के बारे में बताते है।
लाल सिंह को पहले से ही माता शाकम्भरी ने श्राप दे रखा था कि जब तक आप अपना गोत्र व जाति चौहान राजपूत से बदली नहीं कर लेते आपको कहीं भी चले जाओ पीने के लिए खारा पानी ही मिलेगा। दूसरा जड़वा की लड़ाई के बाद एक विधवा ने श्राप दिया कि आपने हमारे गांव को खत्म कर दिया और इतनी औरतों को विधवा बना दिया और बच्चों को अनाथ बना दिया इस लिए इस पाप के लिए मै आपको श्राप देती हूँ कि आप का इस जगह पर रहते हुए वंश नहीं चलेगा।
लाल सिंह इस श्राप से घबरा गया उसने सब सामान गाड़ियों में भरकर अपने परिवार सहित जड़वा छोड़ दिया और तकरीबन दो किलोमीटर दूर एक टीबे पर जाकर अपनी गाड़ियां रोक दी वहाँ पर कोई गांव नहीं था साथ ही वहाँ कुआँ खोदने पर मीठा पानी भी मिल गया। लाल सिंह ने इसी जगह पर डेरा डालकर सपरिवार बसने के इरादे से विक्रम सम्वत 922 सन 865 ईस्वी, महीना बैसाख, दिन शनिवार, तेरस को इसी जगह पर छड़ी और टोपी गाढ़ दी और इसी जगह का नाम नांधा रखा गया इस प्रकार लुहाच गोत्र के पैतृक गांव नांधा का जन्म हुआ ।
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