History



लुहाच वंश का इतिहास

                   इतिहास और वंशावली का समन्वय

इतिहास का अर्थ भूतकाल में घटित घटनाओं के लेखा जोखा का किसी भी रूप में सुरक्षित विवरण रखना होता है। जबकि वंशावली का संबंध किसी व्यक्ति, परिवार या समुदाय विशेष के खून के रिश्ते में पैदा होने वाले व्यक्तियों की पीढ़ी दर पीढ़ी कड़ी को जोड़ कर दर्शाना होता है। इतिहास और वंशावली इस अर्थ में एक दूसरे के पूरक होते हैं। इसी तथ्य को मध्य नजर रखते हुए लेखक ने इस पुस्तक में लुहाच गोत्र के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला है।

लुहाच गौत्र, हिन्दू मत के तहत जाट समुदाय का एक अंग है। इसकी उत्पत्ति त्रेता युग से माउंट आबू पर्वत से हुई थी ऐसी मान्यता है। इसकी उत्पति से लेकर 860 ईस्वी तक के इतिहास का अभी तक कहीं लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। विभिन्न इतिहास के ज्ञाताओं के मत के अनुसार इस गौत्र के पूर्वज विभिन्न परिस्थियों में एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित होते रहे हैं। खेती बाड़ी पशु पालन इनकी आजीविका का मुख्य स्रोत रहा है। इस गौत्र के लोग शारीरिक तौर पर शुडोल, मजबूत और बहादुर होते हैं। प्राचीन समय से ही देश भक्ति इनके खून में रमा हुआ है। इसी कारण इस गौत्र के लोग सेना पुलिस के पेशे को बहुत अहमियत देते आए हैं।

 

उपलब्ध ग्रंथों के अनुसार इस गौत्र के लोग 865 ईस्वी में स्थाई रूप से वर्तमान हरियाणा के चरखी दादरी जिले की बाढ़डा तहसील के नाँधा में बस गए थे। इससे पहले इस गौत्र के पूर्वज अस्थाई जीवन जीते आए थे। वास्तव में उस जमाने में जीवन जीने का यहीं तरीका होता था। इसका कारण इन्सान की बुनियादी आवश्यकता के उपलब्ध होने के साधनों की कमी रही होगी। रहने के लिए घर, पीने के लिए पानी, निर्वाह के लिए खेती लायक जमीन और परिवार या समुदाय की सुरक्षा, यहीं सब मुख्य जरूरतें होती थी। इन सब चीजों के अभाव के कारण लोग अस्थाई जीवन जीते थे और किसी एक जगह पर स्थाई तौर पर नहीं रह पाते थे। लुहाच गौत्र के पूर्वज भी इसी परिस्थिति का शिकार थे।

सन 865 ईस्वी (विक्रम सम्वत 922) में इस गौत्र के जनक (लिखित तथ्यों के आधार पर) लाल सिंह ने नाँधा को स्थाई ठिकाना बनाया था। उस समय उसके परिवार में लाल सिंह स्वयं, उसकी पत्नी, बेटा लूँगा राम, उसकी पत्नी, दो पौत्र सेदो राम बल्ला राम और दो पौत्र वधु, कुल आठ लोग ही थे। धीरे धीरे पीढ़ी दर पीढ़ी वंश बढ़ता गया। लाल सिंह का घर, ढाणी में और ढाणी, गाँव में परिवर्तित होता गया। सदियों बाद इसी गाँव से लोग निकास करके अन्य गाँव में बसने लगे। इस प्रकार 865 ईस्वी से आज 2025 ईस्वी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार 46 गाँव में इसके वंशज स्थाई तौर पर रह रहे हैं।

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इतिहास वंशावली एक दूसरे के पूरक शब्द हैं, दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसी तथ्य को मध्य नजर रखते हुए लेखक ने चार साल की अथक मेहनत के बाद इन सब 46 गाँवोँ की वंशावली को संकलित कर एक पुस्तक में जगह दी है। वंशावली संगृहीत करने में इस गौत्र के भाट देशराज की बही (लाल पौथी) मुख्य स्रोत रहे हैं।

 इसके अलावा लेखक ने हर गाँव से हर परिवार के पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के नाम की जानकारी एकत्रित कर कम्प्यूटीकृत किया। इस काम में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले के नंगला उग्रसैन गाँव से चरन सिंह लुहाच की अहम भूमिका रही है। इसके अलावा देश राज भाट(जग्गा) को हर गाँव में भेज कर घर घर में जाकर वंशावली को अपनी बही में लिखा गया और यही सब जानकारी लेखक को भी उपलब्ध कराई गई। इतनी सब मेहनत के बाद आज लुहाच गौत्र की सम्पूर्ण वंशावली एक पुस्तक के रूप में आप सब के सामने उपलब्ध है।

वंशावली को लिखते समय हर आदमी को पीढ़ी संख्या दी गई। पीढ़ी संख्या देते समय यह ध्यान रखा गया कि एक आदमी का दूसरे परिवार के आदमी या दूसरे गाँव के किसी भी आदमी से उसका नाता क्या है, यह तथ्य सही रहे।

 इस लिए लेखक ने दादा लाल सिंह लुहाच को पीढ़ी क्रम संख्या 1 दिया है और उसके अनुसार हर एक आदमी का जो पीढ़ी संख्या बनता है वही पीढ़ी संख्या उसके नाम के साथ दिया गया है। पीढ़ी संख्या देख कर हर आदमी बाकी अन्य लोगों के साथ उसका क्या रिश्ता बनता है, यह स्वयं पता चल जाता है। इस वंशावली में लगभग 25000 लोगों के नाम सलंगन किए गए हैं।

 

इसके अलावा नाँधा से अन्य गाँवों की निकासी को भी क्रमबद्ध तरीके से दर्शाया गया है। इस प्रकार लुहाच वंश की इस पुस्तक के माध्यम से सभी गाँवों आपस में जुड़कर एक पेड़ का रूप ले चुके हैं जिस प्रकार एक पेड़ से कई सारी शाखाएं निकलती हैं और फिर इन शाखाओं से और शाखाएं निकलती हैं उसी प्रकार लाल सिंह द्वारा रोपीत यह नाँधा रूपी पेड़ आज 46 शाखाओं वाला बहुत गहन विस्तृत पेड़ बन चुका है। 

लेखक

कर्नल कर्मबीर सिंह लुहाच

गाँव गुगाहेड़ी, जिला रोहतक (हरियाणा)

तिथि : 21 मई 2025 

 

लुहाच वंश का इतिहास लगभग 1500 वर्ष पुराना है। इस वंश की उत्पति  चौहान वंश से हुई थी। क्योंकि इस वंश के पूर्वज चौहान वंश से अपना उत्पति मानते हैं इस लिए लुहाच वंश से पहले चौहान वंश की उत्पति और इतिहास पर भी प्रकाश डालना जरूरी है|


                                                                                             चौहान वंश


ऐसा माना जाता है कि त्रेता युग में परसुराम ने सब क्षत्रियों को मार दिया था। क्योंकि राक्षसों से ब्राह्मणों  की रक्षा क्षत्रीय ही करते थे, इसलिए ब्राह्मणों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। सब ब्राह्मण मिलकर वत्स ऋषि के पास मदद लेने के लिए माउंट आबू जिसे उस युग में अर्बुदांचल के नाम से पुकारा जाता था, पर्वत पर ऋषि वत्स के पास गए। ब्राह्मण मंडली ने ऋषि वत्स से गुहार लगाई कि क्षत्रीयों के अभाव में  उनकी राक्षसों से रक्षा की जाए। ऋषि वत्स ने ब्राह्मणों की रक्षा के लिए अर्बुदांचल पर्वत को एक यज्ञ करने के लिए चुना। यज्ञ के किए अग्निकुंड बनाया गया। यज्ञ के अग्निकुंड से चार क्षत्रिय पैदा हुए। ऋषि वत्स ने इनके नाम प्रतिहार, चालुक्य और परमार रखा। ऋषि ने इनको आदेश दिया गया कि पृथ्वी से सब असुरों को मार कर ब्राह्मणों की रक्षा की जाए। सभी क्षत्रिय बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन असुरों से हार गए। इसके बाद ऋषि वत्स ने एक बार फिर यज्ञ किया। इस बार एक और क्षत्रिय अग्निकुंड से पैदा हुए जिसका नाम चाहमान रखा गया। चाहमान को भी सब राक्षसों को मार कर ब्राह्मणों की रक्षा का दायित्व सौंपा गया। चाहमान ने अकेले ही सब असुरों को मार कर ब्राह्मणों की रक्षा करते हुए धर्म की स्थापना की। आगे चलकर इन्हींक्षत्रियों के नाम से राजपूतों के चार वंश बने। प्रतिहार से परिहार,चालुक्य से सोलंकी,परमार से परमार और चाहमान से चौहान नाम पड़ा वैसे तो सभी वंश के शासकों ने बहादुरी के साथ अपने अपने राज्य में राज किया लेकिन चौहान वंश के राजाओं ने सबसे ज्यादा एरिया पर लंबे समय तक राज किया। चौहान वंश के शासकों ने राजस्थान के बहुत बड़े भाग पर 515 ईस्वी से 1194 ईस्वी तक राज किया था। इस वंश के पहले शासक चाहमान (संस्कृत शब्द ) और अंतिम शासक हरिराज थे। हरिराज पृथ्वी राजचौहान के पौत्र थे। इन सब का शासन कालइस प्रकार था :-

(क)   चाहमान:- चाहमान को दैत्य शक्ति भी माना जाता है। इनका राज 515 ईस्वी से 551 ईस्वी तक माना जाता है। चाहमान ने अर्बुदांचल पर्वत  से सब असुरोंका नाश करके अपना आधिपत्य स्थापित किया। उन्होंने कुछ समय नागौर में बिताने के बाद सांभर के पास नलियासर पर हमला किया और हूणों को हराकर अपने अधीन कर लिया।

(ख)   वासुदेव:- वासुदेव चाहमान का पुत्र था क्योंकिचाहमान को दैत्य शक्ति माना जाता है इसलिए वासुदेव को चौहान वंश का पहला शासक माना जाता है। इनका शासन काल551 ईस्वी से 627  ईस्वी तक माना जाता हैलेकिन इस समय का इतिहास में कहीं लेखा जोखा नहीं मिलता।चाहमान और हूणों की लड़ाई में नलियासर बिल्कुल बर्बाद हो गया जो कि हूणों की राजधानी हुआ करती थी। वासुदेव ने पहले नागौर को फिर बाद मेंसांभर झील के पास शाकंभरी नाम से अपनी राजधानी बनाई। उस समय वहाँ पर कुछ झोंपड़ियों के अलावा कुछ नहीं था। वहाँ पर झील के किनारे एक महल बनाया। आज इस महल के खंडहर ही मौजूद हैं।

(ग)    सामंत राज:-सामंत राजवासुदेव का पुत्रनहीं था। वासुदेव और सामंत राज के बीच क्या संबंध थे यह एक रहस्य है। उनका कार्यकाल 684 ईस्वी से 709 ईस्वी तक रहा। इनको माणिक देवकी पदवी मिली हुई थी। ऐसा माना जाता है किइनके शासन काल में ही सांभर झील से नमक का व्यापार शुरू हुआ था।

(घ)   नरदेव (नृप):- नरदेव वासुदेव का बड़ा पुत्र था। उसका शासन काल709 ईस्वी से 721 ईस्वी तक रहा। हालांकि शाकंभरी राज्य की राजधानी थी लेकिन नृप ने अज्ञात कारणों से नागौर में रह कर ही राज किया। नरदेव का एक ही पुत्र था जिसका नाम संकट देवथा। संकट देवका जन्म 710 ईस्वी में नागौर में हुआ। नरदेव की मृत्यु 721 ईस्वी में हो गई। पिता की मृत्यु के समय राजकुमार संकट देव महज 11 वर्ष के थे। इस कारण नृप के छोटे भाई अजय राज प्रथमको राज सिंहासन पर बिठाया गया। इसके साथ हीनृप देव के वंशज से हमेशा के लिए राजसिंहासन छिन गया। संकट देव को लुहाच वंश का पूर्वज माना जाता है।

(ङ)    अजय राज प्रथम:- अजय राज, नृप देव का छोटा भाई औरवासुदेव का छोटा बेटा था। बड़े भाई नृप देव की मौत के बाद 721 ईस्वी में शाकंभरी के सिंहासन पर बैठा। इन्होंने नागौर की बजाय शाकंभरी में रह कर राज किया। इनका शासन काल721 ईस्वी से 734 ईस्वी तक रहा।

(च)   विग्रह राज प्रथम:- 734 ईस्वी से 759 ईस्वी तक।

(छ)   चंद्र राज प्रथम:- 759 ईस्वी से 771 ईस्वी तक।

(ज)   गोपेंद्र राज:- 771 ईस्वी से 784 ईस्वी तक।

(झ)   दुर्लभराज प्रथम:- 784 ईस्वी से 809 ईस्वी तक।

(ञ)   गोविंद राज प्रथम:- 809 ईस्वी से 836 ईस्वी तक।

(ट)     चंद्र राज द्वितीय:-836 ईस्वी से 863 ईस्वी तक।

(ठ)     गोविंद राज द्वितीय:- 863 ईस्वी से 890 ईस्वी तक।

(ड)    चंदन राज:- 890 ईस्वी से 917 ईस्वी तक।

(ढ)    वाक्पति राज प्रथम:- 917 ईस्वी से 944 ईस्वी तक।

(ण)   विंध्य राज:- 944 ईस्वी से 944 ईस्वी तक।

(त)    सिंह राज:- 944 ईस्वी से 971 ईस्वी तक।

(थ)   विग्रह राज द्वितीय:-  971 ईस्वी से 998 ईस्वी तक।

(द)    दुर्लभ राज द्वितीय:- 998 ईस्वी से 1012 ईस्वी तक।

(ध)   गोविंद राज तृतीय:- 1012 ईस्वी से 1026 ईस्वी तक।

(न)    वाक्पति राज द्वितीय:- 1026 ईस्वी से 1040 ईस्वी तक।

(ऩ)    वीर्य राज:- 1040 ईस्वी से 1040 ईस्वी तक।

(प)    चामुंड  राज:- 1040 ईस्वी से 1065 ईस्वी तक।

(फ)   दुर्लभ राज तृतीय:- 1065 ईस्वी से 1070 ईस्वी तक।

(ब)    विग्रह राज तृतीय :- 1070 ईस्वी से 1090 ईस्वी तक।

(भ)   पृथ्वी राज प्रथम:- 1090 ईस्वी से 1110 ईस्वी तक।

(म)   अजय राज प्रथम:- 1110 ईस्वी से 1135 ईस्वी तक। ये राजधानी को अजमेर ले गए थे।

(य)    अरणों राज:- 1135 ईस्वी से 1150 ईस्वी तक।

(र)     जगद देव:- 1150 ईस्वी सर 1150 ईस्वी तक।

(ऱ)     विग्रह राज चतुर्थ:- 1150 ईस्वी से 1164 ईस्वी तक।

(ल)   अमर गंगेय:- 1164 ईस्वी से 1165 ईस्वी तक।

(ळ)   पृथ्वी राज द्वितीय:- 1165 ईस्वी से 1169 ईस्वी तक।

(ऴ)   सोमेश्वर चौहान:- 1169 ईस्वी से 1178 ईस्वी तक। ये पृथ्वी राज चौहान के पिता थे।

(व)    पृथ्वी राज तृतीय(पृथ्वी राज चौहान):- 1178 ईस्वी से 1192 ईस्वी तक।

(श)   गोविंद राज चतुर्थ:- 1192 ईस्वी से 1193 ईस्वी तक।

(ष)    हरी राज:- 1193 ईस्वी से 1194 ईस्वी तक। ये चौहान वंश के आखिरी राजा थे।


चौहान वंश के मुख्य राज्य

चौहान वंश वर्तमान राजस्थान, हरियाणा, उतर प्रदेश,मध्य प्रदेश और गुजरात राज्यों के अलग अलग भागों में फैला हुआ था। इनके राज्यों के नाम इस प्रकार से थे।

(क)   अहिछत्रपूरा, जिला नागौर (राजस्थान)

(ख)   शाकंभरी (सांभर), जिला जयपुर (राजस्थान)

(ग)    ददरेवा, जिला सीकर (राजस्थान)

(घ)   अजयमेरु, जिला अजमेर (राजस्थान)

(ङ)    नददुल(नाडोल), जिला पाली(राजस्थान)

(च)   लता, जिला भड़ोच (गुजरात)

(छ)   धौलपुर, जिला धौलपुर (राजस्थान)

(ज)   प्रतापगढ़, जिला प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

(झ)   जालौर, जिला जालौर (मध्य प्रदेश)

(ञ)   रणथम्भोर, जिला सवाईमाधोपुर (राजस्थान)

  

 

इतिहास के स्रोत


चौहान वंश का इतिहास विभिन्न स्रोतों से लिया गया है। पहले जमाने में आज की तरह से लेखन क्रियाकी लोगों में समझ नहीं थी। इसलिए अलग अलग तरीके से राजाओं और उनके राज्यों का ब्योरा रखा जाता था। इनको शिलालेख और अभिलेख का नाम दिया गया। चौहान वंश का इतिहास भी अलग अलग शिलालेख, अभिलेख, पत्र और पुस्तकों से लिया गया है जो कि इस प्रकार से है :-

(क)    बिजौला शिलालेख:- यह शिलालेख शाकंभरी नरेश सोमेश्वर के मंत्री ने गाँव बिजौला, जिला भीलवाड़ा, राजस्थान के पाशर्वनाथ मंदिर में एक शीला पर संस्कृत भाषा में लिखवाया था। इस लेख में शाकंभरी के चौहानों के शासन कालऔर समकक्ष राजाओं के बारे में बताया गया है। यह लेख 1170 ईस्वी में लिखा गया था।

(ख)   सुधालेख:- यह लेख 1262 ईस्वी में लिखा गया था। इसमें जालौर के चौहानों  के शासन कालको दर्शाया गया है।

(ग)    अच्छलेश्वर मंदिर लेख:- यह मंदिर माउंट आबू पर्वत पर स्थित है। इस लेख में चारों अग्नि पुत्रचाहमान, प्रतिहार, चालुक्य और परमार की अग्निकुंड से उत्पति से लेकर शाकंभरी चौहान की वंशावली पर प्रकाश डाला गया है। यह लेख 1320 ईस्वी में लिखा गया था।

(घ)   हमीर महाकाव्य:- यह महाकाव्य 15 वीं सदी में हमीर द्वारा लिखा गया। इसमें रणथंभोर के चौहानों  के शासन काल पर प्रकाश डाला गया है।

(ङ)    पृथ्वी राज रासो:- इस महाकाव्य की रचना की शुरुआतपृथ्वी राज चौहान के राज कवि चंद्र बरदाईने की थी और उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र जयंक ने इसे पूरा किया। इस महाकाव्य में पृथ्वी राज चौहान के शासन काल, कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी संयोगिता से प्रेम प्रसंग, राजा जयचंद से लड़ाई, तराईन की पहली और दूसरी लड़ाई, चौहान वंश का पतन और मुहम्मद गौरी के ऊपर काफी विस्तार से लिखा गया है।

   

इतिहास लिखने का माध्यम


जब कागज, कलम और स्याही की खोज नहीं हुई थी उस समय इतिहास विभिन्न प्रकार के माध्यम से मौखिक सुनाया जाता था जैसे आल्हा, रागिनी, कहानी, कविता और दोहे आदि के रूप में। यह विधि पीढ़ी दर पीढ़ी अभी तक चली रही है। आदि समय से लेकर अब तक निम्नलिखित तरीके इतिहास को लिखने में इस्तेमाल किए गए।

(क)   मौखिक:- कहानी, श्लोक, कविता, रागिनी आदि के रूप में।

(ख)   तार पत्र:-ये तरीका सत युग काल में इस्तेमाल होता था। इस विधि द्वाराएक जगह से दूसरी जगह संदेश भेजे जाते थे।

(ग)    भोजपत्र:- यह तरीका द्वापर और त्रेता युग में इस्तेमाल होता था। इस विधि में भोज नाम के पेड़ के छिलके का इस्तेमाल सांस्कृतिक पांडुलिपि के लिखने के लिए किया जाता था। आज भी विभिन्न संग्रहालयों में भोज पत्र पर लिखी हुई प्रति लिपियाँसंग्रहीत हैं। भोजपत्र का पेड़ ऊंचे पहाड़ों में होता है। इसका छिलका चिकना होता है और उस पर लिखना आसान भी होता है। इस पर लिखे लेख सदियों तक खराब नहीं होते।

(घ)   ताड़ पत्र:- यह विधि कलियुग में लेख लिखने के लिए इस्तेमाल की जाती थी। इसमें ताड़ नाम के पेड़ की छाल लेख लिखने के लिए इस्तेमाल की जाती थी। इसकी छाल चिकनी होती है जिस पर लेख लिखना आसान होता है। इस पर लिखे ग्रंथ सदियोंतक सुरक्षित रहते हैं। आज भी कई मठों और विश्वविद्यालयों में ताड़ पत्र पर लिखे ग्रंथ उपलब्ध हैं।

(ङ)    ताम्रपत्र:-यह विधि भी कलियुग में इस्तेमाल की जाती थी। इसमें तांबे की पतली परत पर खुदाई करके लेख लिखा जाता था। आज भी विभिन्न प्राचीन भाषाओं में लिखे ताम्रपत्र पुरातत्व विभाग के पास सुरक्षित हैं।

(च)   रस्सी पत्र:- इस विधि द्वारा सनी को गला कर दीवार पर शब्दों का आकार दे कर भी लेख लिखे जाते थे।

(छ)   कागज पत्र:- यह आधुनिक तरीका है। यह तरीका मध्यकाल से चला रहा है।

(ज)   इंटरनेट:- यह तरीका 1990 के दशक से वर्तमान तक इस्तेमाल में है।

(झ)   वर्ण व्यवस्था:- यह व्यवस्था लगभग 1500 ईस्वी पूर्व भारत में आर्यों के आगमन से शुरू हुई थी। इसमें समाज को काम के आधार पर बांटा गया था जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।वैश्य वर्ग में भी कई उप जातियाँ होती थी जिनका व्यवसायउनकी काम करने की रुचि के आधार पर होता था। इसमें से एक उप जाति ऐसी थी जिसका काम अन्य जाति उप जाति के लोगों के वंश का लेखा जोखा रखना होता था। इनको अलग अलग जगह पर अलग नाम से जाना जाता था जैसे राव, भट्ट, भाट, जग्गा, पड़िया अन्य।


लुहाच वंश


जैसा किऊपर बताया गया है कि इतिहासकारों केअनुसार लुहाच वंश का उद्गम राजपूत जाति के चौहान वंश से है। इसका मतलब जाति और गोत्र दोनों बदली हुए थे। राजपूत जाति से जाट जाति औरचौहान गोत्र से लुहाच गोत्र अपनाया गया। इसके पीछे एक लंबी कहानी है। इन्हीं तथ्यों को सही मानते हुए चाहमान (दैत्य पुरुष) से अब तक (515 ईस्वी-2025 ईस्वी)1510साल और लाल सिंह लुहाच (लुहाच वंश संस्थापक) से अब तक (860 ईस्वी-2025 ईस्वी)1165 साल पुराना लुहाच वंश का इतिहास है। यह इतिहास उपरोक्त लिखित लेख और इस गोत्र के भाट जिन्हें बही भाटके नाम से भी जाना जाता है केपास उपलब्ध बही ताड़ पत्र में लिखे विवरण पर आधारित है।


लुहाच वंश के बही भाट


यह परिवार पृथ्वी राज चौहान के राज कवि चंद्र बरदाई के गोत्र से है। चंद्र बरदाई भी एक बही भाट थे जिनके पूर्वज चौहान राजपूतों की वंशावली उनका इतिहास लिखते थे। यह परिवार लगभग 943 ईस्वी तक राजस्थान के वर्तमान जयपुर जिले के बुहारू गाँव में रहताथा और चौहान राजपूतों का इतिहास लिखते था। इस समय तक लुहाच वंश की उत्पति हो चुकी थी। लगभग 950 ईस्वी मेंकिसी अज्ञात कारणों से यह परिवार वर्तमान हरियाणा के जिला चरखी दादरीके श्यामपुरा गाँव में आकर रहने लगा। लुहाच परिवार का पैतृक गाँव,श्यामपुरा गाँव का सीमावर्ती गाँव था। जब इस बही भाट परिवार को इसका पता चला तो उसनें लुहाच परिवार के इतिहास को चौहान गोत्र से अपनी बही ताड़ पत्र केउपलब्ध विवरण के आधार पर अपनी बही में कलबद्ध करना शुरू किया। तब से आज तक का सम्पूर्ण लुहाच वंश का इतिहास नाँधा से अन्य गाँव के लिए हुए विस्थापन तक की वंशावली इस परिवार की बही में लिखा हुआ है। यह परिवारश्यामपुरा में 1865 ईस्वी तक रहा। इस परिवार में काशी राम नाम का एक पूर्वज था जिसकी शादी वर्तमान अजमेर जिले के सावंत सर गाँव में हुई थी। काशी राम की पत्नी के कोई भाई नहीं था इसलिए काशी राम अपने परिवार समेत अपनी ससुरालसावंत सरजाकर बस गया। तब से अब तक यह परिवार सावंत सर में रह कर लुहाच गोत्र काइतिहास और वंशावली अपनी बही में लिखता आरहा है। इस समय रामचंद्रभाट और देश राज भाटदोनों भाई इस काम पर लगे हुए हैं। दोनों भाई हर पाँच साल के बाद हर लुहाच गाँव में जाकर हर घर की वंशावली का आधुनिकिकरण करते हैं। इस परिवार की वर्तमान पीढ़ी से पहले तक के कुछ नाम इस प्रकार से हैं। देसराज रामचंद्र सुपुत्र प्रेमचंद सुपुत्र काशी राम सुपुत्र जेठा राम सुपुत्र नारायण राम सुपुत्र सीता राम सुपुत्र कालू राम सुपुत्र खनडु राम। इस परिवार का वर्तमान पता हैराम चंद्र भाट सुपुत्र प्रेमचंद,महावीर कालोनी, गाँवसावंत सर ,तहसील किशन गढ़, जिला अजमेर, राजस्थान। मोबाइल नंबर () राम चंद्र -7976899517 () देसराज- 7568381813

  

लुहाच वंश के पूर्वजों का इतिहास ( 551 ईस्वी-860 ईस्वी)


जैसा किविभिन्न लेखों और पृथ्वी राज के राज कवि चंद्र बरदाई की बही में बताया गया है किचाहमान के पुत्र वासुदेव चौहान वंश के संस्थापक थे और उसने 551 ईस्वी में हूणों का पीछा करते हुए नागौर होते हुएशाकंभरी (वर्तमान सांभर) में पहले चौहान राज वंश की नींव रखी थी। उस समय उसके राज में ऐसा माना जाता है किसवा लाख गाँव थे इस लिए उसके राज्य को सपादलक्ष भी कहा जाता है।वासुदेव का शासन काल 551 ईस्वी से 627 ईस्वी तक रहा। 627 ईस्वी से 684 ईस्वी तक सिंहासन पर कौन था इसका इतिहास में कोई लेखा जोखा नहीं मिलता। 684 ईस्वी में माणिक राज गद्दी पर बैठा। माणिक राज एक सामंत था। उसका राज 709 ईस्वी तक रहा। वास्तव में वासुदेव एक ऐसा राजा था जिसको चौहान वंश और लुहाच वंश के वंशज अपना पूर्वज मानते हैं। वासुदेव के दो बेटे थे। बड़ा बेटा नर देव उर्फ नृप था जिसका राज 709 ईस्वी से 721 ईस्वी तक रहा। उसकी मृत्यु के बाद वासुदेव का छोटा बेटा अजय राज प्रथम उर्फ जय राज उर्फ अजय पालगद्दी पर बैठा। उसका राज 721 ईस्वी से 734 ईस्वी तक रहा। अजय राज से आगे राज घराना उन ही के वंशज के पास रहा। इस राज घराने का आखिरी राजा हरी राज था जो कि पृथ्वी राज चौहान का पौत्र था जिसका राज 1194 ईस्वी में समाप्त हो गया।


नर देव के पुत्रसेबाल्यवस्था होने के कारण उसकी मौत के बाद से राज घराना नहीं रहा। उसकी मौत के समय उसके इकलौते पुत्र संकट देव की उम्र महज 11 वर्ष थी इसी कारण राज घराना उसके चाचा अजय राज के वंशजोंकी तरफ चला गया।नर देव के वंशजों नेआगे चलकरचौथी पीढ़ी मेंलुहाच गौत्रको जन्म दिया। इसके पीछे एक लंबी कहानी है।

दादा नर देव से दादा लाल सिंह तक का इतिहास


नर देव:- जैसा कि ऊपर बताया गया है कि नर देव, राजा वासुदेव के पुत्र थे। उसका राज 709 ईस्वी से 721 ईस्वी तक रहा। 710 ईस्वी में राजघराने मेंनागौर में एक राज कुमार पैदा हुआ जिसका नाम संकट देव रखा गया। नर देव की मौत 721 ईस्वी में हो गई। उस समय राज कुमार की उम्र महज 11 साल थी। राजकुमार की बाल्यवस्था को देखते हुए राज पाट चाचा अजय राज के पास चला गया। चाचा ने राजधानी नागौर से सांभर बना ली। पीछे से राज कुमार का लालन पालन उसकी माता ने नागौर में रह कर ही किया।


संकट देव:- संकट देव का जन्म नागौर के राज महल में हुआ। पिता की मौत के बाद उसका लालन पालन उसकी माँ ने ही किया। पिता नर देव के समय से ही नागौर, नाडोल और पाली के इलाकों में भील जन जाति मेद जन जाति का काफी प्रभाव था। दोनों जन जाति काफी बहादुर लड़ाकू थी। उन्होंने हूणों के शासन काल से ही हुड़दंग मचा रखा था। हूणों के बाद जब चौहानों का राज आया तो भी ये जन जातियाँ लूट पाट मार काट करती रहती थी। 735 ईस्वी में संकट देव की शादी चित्तौड़गढ़ की राज कुमारी से हो गई। 740 ईस्वी में संकट देव के घर एक बेटा पैदा हुआ जिसका नाम रामदास रखा गया। 750 ईस्वी में दूसरा बेटा पैदा हुआ जिसका नाम राम सिंह रखा गया। धीरे धीरे दोनों भाई बड़े हो गए। भील मेद जन जातियों का झगड़ा चलता रहा। सांभर से भी कोई खास मदद नहीं मिलती थी इस लिए हमलावरों का हौसला बढ़ता गया। 778 ईस्वी में संकट देव के परिवार और मेद जन जाति के लोगों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। उस समय रामदास की उम्र 38 साल, राम सिंह की उम्र 28 साल और संकट देव की उम्र 68 साल थी। हालांकि मेदों  की संख्या संक देव के परिवार से काफी ज्यादा थी लेकिन संकट  देव और उसके बेटे बहुत बहादुर और लड़ाकू थे। भयंकर लड़ाई हुई जिसमें मेद जन जाति के कई लोग मारे गए जिनमें भल्ला, मेवा, सेवा और खीवा  मुख्य नाम थे।


बैर विरोध बढ़ता गया। संकट देव ने अपने परिवार पर खतरा बढ़ते देख 780 ईस्वी में परिवार सहित अपनी ससुराल चित्तौड़गढ़ जाने का मन बना लिया। इस प्रकार संकट देव 780 ईस्वी में अपनी ससुराल आकर रहने लगा।चितोड़गढ़ आते ही राम सिंह के घर बेटा पैदा हुआ जिसका नाम लाल सिंह रखा गया।यह वही लाल सिंह था जिसने आगे चलकर लुहाच वंश की नीव रखी।रामदास और राम सिंह दोनों भाइयों की शादी भी नागौर रहते हुए ही हो गई थी। चित्तौड़गढ़ में 90 साल की उम्र में 800 ईस्वी में संकट देव की अपनी ससुराल चित्तौड़गढ़ मौत हो गई।


रामदास:- रामदास संकट देव का बड़ा बेटा था। पिता की मृत्यु के बाद दो साल तक वह अपने छोटे भाई राम सिंह के साथ अपने ननिहाल में ही रहा। इस दौरान रामदास के परिवार का अपने ननिहाल के लोगों से संपती को लेकर मतभेद हो गया। इसलिए रामदास अपने भाई के परिवार के साथ 802 ईस्वी मेंअपने पूर्वजों की राजधानी सांभर गया।उस समय दुर्लभ राज प्रथम का राज था। सांभर में पीने का पानी नहीं था। सांभर झील और जमीन के नीचे का पानी खारा था। राज घराने से भी कोई मदद नहीं मिली। रामदास ने सपरिवार गोगामेड़ी जाने का मन बना लिया छोटा भाई राम सिंह गोगामेड़ी की बजाय अजमेर जाना चाहता था क्योंकि अजमेर मेंआना सागर झील में पीने के लिए मीठा पानी था। इस प्रकार दोनों भाइयों में मतभेद हो गया। 20 साल सांभर में रहने के बाद822 ईस्वी में छोटा भाई राम सिंह अपने परिवार के साथ अजमेर चलागया। उसी साल रामदास भी अपने परिवार के साथ गोगामेड़ी चला गया। इस प्रकार दोनों भाइयों का परिवार हमेशा हमेशा के लिए अलग हो गया। गोगामेड़ी से रामदास के वंशज बाद में वर्तमान राजस्थान के जिला नागौर, बीकानेर और चुरू जिलों केकई गाँव में जाकर रहने लगे और लांच लवाइच  गोत्र के नाम से जाने जाने लगे। ये गाँव हैं बोड़वा, थावला, लांच की ढाणी, सुरपालिया, ढिंगसरी, खेतास और जोधयाशी। सभी लांच और लवाईच अपने आप को लुहाच गोत्र का चचेरा भाई मानते हैं।

 

राम सिंह:-राम सिंह संकट देव का छोटा बेटा और रामदास का छोटा भाई था। राम सिंह भी अपने परिवार के साथ चितोड़गढ़ से आकर सांभर रहने लगा था। पीने के पानी की किल्लत की वजह से बड़ा भाई गोगामेड़ी चला गया और राम सिंह अपने परिवार के साथ822 ईस्वी में अजमेर आकर रहने लगा। उस समय अजमेर शहर नहीं बल्कि एक छोटी सी बस्ती होतीथी। यहाँ पर पहाड़ों के बीच छोटी छोटी झील के रूप में पीने का पानी था। उस जमाने में जहां भी थोड़ा बहुत पानी मिल जाता,वहीं पर लोग बस्ती बना कर रहने लगते थे। जब यह परिवार अजमेर आया उस समय राम सिंह की उम्र 72 वर्ष और बेटे लाल सिंह की उम्र 22 वर्ष थी।राम सिंह ने यहीं पर बसने का मन बना लिया।825 ईस्वी में यहीं पर बेटे लाल सिंह की शादी हो गई।827 ईस्वी में अजमेर में हीलाल सिंह काबड़ा बेटा बरदेस राम और 829 ईस्वी मेंछोटा बेटा लूँगा राम पैदा हुए राम सिंह एक धार्मिक परिवृतिके इन्सान थे और चौहानों की कुलदेवी माता शाकंभरी के भगत थे। उसकी माता में बहुत गहरी आस्था थी। ऐसी मान्यता है किएक रात माता शाकंभरी अपने भगत राम सिंह को सपने में दिखाई दी माता ने राम सिंह को कहा कि यह जगह आप के परिवार के लिए अशुभ है। अगर आप यहाँ रहे तो आप का वंश नहीं चलेगा।इस लिए आप सपरिवार ओर कहीं चले जाओ। राम सिंह इस स्वप्न से काफी चिंतित हो गए। एक ही बेटा था इसलिए राम सिंह 830 ईस्वी में अपने परिवार के साथ चुरू जिले के ददरेवा में गया।


जब राम सिंहददरेवा आए उस समय वहाँ परभी चौहान वंश का राज था। ददरेवा गोगा जी महाराज की जन्म स्थली थी। गोगा जी महाराज के पूर्वजों ने ददरेवा को अपनी राजधानी बना रखा था। जब राम सिंह ददरेवा पहुंचे तो उन्हें यहाँ भी सांभर की तरह पीने का खारा पानी मिला। उस जमाने में पानी की बहुत किल्लत होती थी। बरसात नहीं के बराबर होती थी। जमीनी पानी पीने लायक नहीं था। इस लिए लोग ऊंट गाड़ी का कारवां बना कर पानी की तलास में एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते थे। जहां पीने का पानी मिल जाता, वहीं पर डेरा डाल कर रहने लगे। बाद में यही डेराबस्ती का रूप ले लेता था।राम सिंह बूढ़ा हो चला था। उसकी उम्र 80 साल की हो गई थी।बेटा लाल सिंह 30 वर्ष के नोजवान थे। पौत्र बिरदेस और लूँगा राम महज बच्चे थे। राम सिंह कुलदेवी शाकंभरी के पुजारी थे। अपने भगत की परेशानी को देखते हुए माता ने फिर एक रात दर्शन दिए। माता नेराम सिंह को बताया कि आप ने गलत जगह पर डेरा डाला है। एक तो यहाँ पर जमीन का खारा पानी है। दूसरा आप को चौहान राजपूत वंश को छोड़कर कोई दूसरा जाति और गोत्र अपनाना पड़ेगा अन्यथा आपका वंश आगे नहीं बढ़ेगा।


राम सिंह की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही थी। कुलदेवी अपने भगत को बार बार आगाह कर रही थी। राम सिंह ने अपना जाति और गोत्र तो नहीं छोड़ा लेकिन पीने के मीठे पानी की लालसा में उसने कहीं और आगे जाने का मन बना लिया। इस प्रकारदो साल ददरेवा में रुकने के बादराम सिंह सपरिवार 832 ईस्वी में सिधमुख गए सिधमुख भी उस समय एक छोटा सा गाँव होता था जिसमें कुछ एक झोपड़ियाँ थी। वर्तमान में सिधमुख राजस्थान के चुरू जिले की राजगढ़ तहसील का एक छोटा सा कस्बा है जो कि ददरेवा से 20 किलो मीटर उत्तर में है।सिधमुख पर उस समय चहार गोत्र के जाट राजा का शासन का हिस्सा था। सिधमुख आने पर पता चला कि यहाँ भी पीने का पानी खारा है।


परिवार पानी की तलास में दर दर भटकता फिर रहा था। ऊपर से जाति गौत्र ना बदली करने के कारण वंश खत्म होने का डर और माता शाकंभरी की चेतावनी भी परेशान कर रही थी। माता शाकंभरी नेएक बार फिर राम सिंह कोस्वप्न में आकर सिद्धपुर और गोत्र सहित जाति बदली करने की याद दिलाई। राम सिंह पहले ही अपने जन्म स्थान नागौर से चल कर अपने ननिहाल चितोड़गढ़ होते हुए सांभर,अजमेर, ददरेवा होते हुए सिद्धपुर पहुँचते पहुँचते बूढ़े हो चुके थे। इस लिए और आगे नहीं जाने का मन बना लिया। राम सिंह का 840 ईस्वी में 90 वर्ष की आयु में सिद्धपुर में ही देहान्त हो हो गया इस प्रकार इस परिवार के एक महान पुरुष की लंबी संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा समाप्त हो गई।


लाल सिंह:- लाल सिंह अपने पिता राम सिंह की इकलौती औलाद थी। इनका जन्म 800 ईस्वी में चितोड़गढ़ में हुआ था जन्म के बाद अपने दादा पिता के साथ सांभर, अजमेर, ददरेवा होते हुए सिद्धपुर पहुंचे थे। 840 ईस्वी में पिता के देहांत के बाद परिवार की सारी जिम्मेदारी लाल सिंह के कंधों पर गई। पत्नी के अलावा परिवार मेंदोनों बेटे बरदेश राम और लूँगा राम क्रमशः: 23 वर्ष और 21 वर्ष के नौजवान थे।समय गुजरता गया। राम सिंह की मृत्यु के बाद माता शाकंभरी बेटे लाल सिंह कोस्वप्न में आकर जगह छोड़ने और जाति गौत्र बदली करने की याद दिलाती रही लाल सिंह ने भी दोनों बातों पर अमल नहीं किया। काफी समय गुजर गया। परिवार में आदमियों की कमी थी इस लिए लाल सिंह ने 850 ईस्वी में बरदेस और 853 ईस्वी में लूँगा राम की शादी कर दी। 855 ईस्वी में लूँगा राम की पत्नी से बड़े बेटे बाला राम और 857 ईस्वी में छोटे बेटे सेदो राम का जन्म हुआ। खारा पानी की समस्या का तो परिवार आदि पड़ चुका था, लेकिन कुलदेवीमाता शाकंभरी राम सिंह की मृत्यु के बादहर साल लाल सिंह को जगह और गौत्र बदली करने के लिए याद दिलाती रही। लाल सिंह भी अपने पिता राम सिंह की तरहकुलदेवी के भगत थे। अन्त में पिता के गुजरने के 20 साल बाद 860 ईस्वी में उसनें माता के कहे अनुसार जगह और गौत्र बदली करने के लिए मन बना लिया। लाल सिंह ने सुन रखा था कि सिधमुख से उतर-पूर्व लगभग 20 कोस दूर जड़वा गाँव में पीने का मीठा पानी है। इस लिए सन 860 ईस्वी में लाल सिंह सपरिवार सिधमुख को छोड़ कर जड़वा गए यहाँ आकर परिवार को पीने का मीठा पानी मिल गया। परिवार काफी खुश हुआ। माता के कहे के मुताबिक परिवार की एक बहुत बड़ी मुराद पूरी हो गई। इससे परिवार की माता के प्रति आस्था और भी गहरी हो गई।


860 ईस्वी तक जड़वा एक छोटी सी ढाणी हुआ करती थी। इसमें कुछ कच्चे मकान झोपड़ियाँ मात्र ही थी। लोगों का आजीविका का मुख्य जरिया पशु पालन के अलावा खेती बाड़ी था। क्योंकि जमीन के नीचे का पानी मीठा था इस लिए कुआं,और रहट द्वारा जमीन का पानी तालाब बावड़ी में एकत्रित कर के इंसानों जानवरों के पीने का काम चल जाता था। रहट कुआं से थोड़ा बहुत खेती की सिचाई भी हो जाती थी। इस प्रकार गाँव में काफी खुशहाली थी। गाँव में तोमर राजपूत जाति की जनसंख्या थी। ये ढाणी दिल्ली के तोमर वंश के साम्राज्य के अधीन पड़ता था। जड़वा आजकल हरियाणा राज्य के महेंद्रगढ़ जिले में पड़ता है।

 

जैसा किऊपर बताया गया है कि माता ने लाल सिंह को वंश की सलामती के लिए दो सुझाव दिए थे। एक पीने का मीठा पानी के लिए जगह बदली करना और दूसरा वंश को आगे चलने के लिए गौत्र जाति दोनों बदली करना। एक समस्या का तो समाधान हो गया था लेकिन दूसरी समस्या अभी तक सामने खड़ी थी। लाल सिंह चौहान राजपूत थे जबकि पूरी ढाणी तोमर राजपूत के लोगों की थी दोनों में एक बात तो सामान्य थी और वह थी राजपूत जाति। दोनों अग्नि वंशी थे पर गौत्र अलग अलग थे। दूसराइनकी उत्पति से ही राजपूतों के सभी चारों वर्ग चौहान, परमार, प्रतिहार और चालुक्य आपस में लड़ते रहते थे। परमार राजपूत चौहान राजपूतों को पसंद नहीं करते थे। इसी कारण से कुछ दिन के बाद लाल सिंह परिवार और परमारमें झगड़ा होने लगा। लाल सिंह को गाँव छोड़ने केलिए दबाव पड़ने लगा। लाल सिंह मीठा पानी मिलने के कारण जड़वा छोड़ने को तैयार नहीं था। दुश्मनी बढ़ती गई। आखिर में लाल सिंह ने माता शाकंभरी के कहे अनुसार अपना जाति और गौत्र बदली करने का मन बना लिया।लाल सिंह नेअपने नाम से मिलता जुलतालुहाच गौत्र और जाति जाट रख लिया। इस प्रकार860 ईस्वी में जड़वा गाँव मेंलाल सिंह चौहान का परिवार लाल सिंह लुहाच बन गया और जाति जाट अपना लिया।


कुलदेवी माता शाकंभरी के कहे अनुसार अब लाल सिंह को पीने के लिए मीठा पानी भी मिल गया औरवंशआगे चलने का श्राप भी उतर गया। परिवार सुख पूर्वक रहने लगा लेकिन तोमर राजपूतों से संबंध मधुर नहीं बन पाए। लाल सिंह का परिवार छोटा था और तोमर राजपूतों की संख्या ज्यादा थी। राजपूत चाहते थे कि लाल सिंह का परिवार गाँव छोड़कर कहीं और चला जाए। आए दिन लड़ाई झगड़ा होने लगा। लाल सिंह के परिवार में राजपूतों का सामना करने के लिए सिर्फ छः सदस्य,लाल सिंह स्वयं, उसकी पत्नी, दो बेटे बरदेस राम लूँगा राम और उन दोनों की पत्नियाँ थी। लाल सिंह और उसकी पत्नी हालांकि बूढ़े हो चुके थे लेकिन बहू-बेटे जवान थे। दोनों बेटे बहुत बहादुर लड़ाई में काफी सक्षम थे। फिर भी लाल सिंह आमने सामने की लड़ाई में इतने लोगों का सामना करने में सक्षम नहीं था। इस लिए एक दिन लाल सिंह परिवार ने योजना बनाई जिसके तहत यह निर्णय लिया गया कितोमर राजपूतों से पहले दोस्ती कर ली जाए। फिर जब इनसे संबंध थोड़े से नरम हो जाए तब उनको अपने बाड़ा में एक सभा के के लिए आमंत्रित किया जाए। जब सब बाड़ा में एकत्रित हो जाएं तब बाड़ा का गेट बन्दकरके उन पर हमला किया जाए। इसी योजना के तहत लाल सिंह परिवार गाँव के लोगों से मिलजुल कर रहने लगा। जब माहौल नरम हुआ तब सब तोमर लोगों को ग्राम सभा के लिए बाड़ा में बुलाया गया। जब सब लोग एकत्रित हो गए तब लाल सिंह परिवार ने चालाकी से मुख्य द्वार बन्ध कर दिया। बाहर से लाल सिंह परिवार देसी हथियारों से लेस हमला करने लगा। इस लड़ाई में कुछ तोमर लोग तो अंदर ही जख्मी होकर  मर गए और कुछबाहर निकल कर भागने में सफल रहे। बरदेस राम बहुत ही तगड़ा बहादुर था। उसने अकेले में ही कई लोगों को मार गिराया। इस झड़प में बरदेस राम भी शहीद हो गया।यह घटना 864 ईस्वी की है

 

जो लोग सभा में नहीं आए थे वह डर के कारण अपने बच्चे, बूढ़े, औरतों और पशुओं के साथ भाग कर दूसरे गाँव में चले गए। जब लोग जान बचाकर दूसरे गाँव में शरण ले रहे थे तो उस में एक गर्भवती महिला भी थी। इस महिला का भी सारा परिवार खत्म हो चुका था।पूरा गाँव उजड़ बन गया। इसी घटना के कारण गाँव का नामउजड़वा पड़ गया। बरदेस की बहादुरी के नाम पर बरदेस लुहाच की याद में एक छतरी बनाई गई जो आज भी उजड़वा गाँव में मौजूद है


इस घटना के कुछ महीने बाद उस गर्भवती महिला ने एक लड़के को जन्म दिया।महिला अपने बेटे को अपने मायके में ही पालने लगी। एक दिन वह महिला हिम्मत करके उसी उजड़वागाँव में आई। उसने लाल सिंह को कहा कि आप ने मेरा सुहाग उजाड़ा है। इस लिए में आप को श्राप देती हूँ कि अगरआपका परिवार इस गाँव में रहेगा तो आप के वंश का अंत हो जाएगा अगर आप को अपना वंश बचाना है तो इस गाँव को छोड़कर कहीं और चले जाए। लाल सिंह भी इस घटना से काफी आहत हो गया था। साथ ही अपना बड़ा बेटा भी लड़ाई में खो दिया था। बेटे की मौत के कारण लाल सिंह की पत्नी भी चल बसी। परिवार किसको अच्छा नहीं लगता।इस लिए लाल सिंह ने गाँव छोड़ने का मन बना लिया और 865 ईस्वी में उजड़वा से चार कोस दूर जहां मीठा पानी भी था, सपरिवार चला गया। लाल सिंह के इस गाँव के छोड़ने के बाद भी कई सालों तक गाँव बिल्कुल उजड़ बना रहा। जब उस गर्भवती औरत जिसने लाल सिंह को श्राप दिया था का बेटा जवान हो गया तब वह अन्य परिवारों के साथ वापस अपने घर उजड़वा गाँव में आकर रहने लगी। इस प्रकार वही उजड़वा गाँव दोबारा आबाद हुआ और इसका नाम जड़वा पड़ा


लाल सिंह लुहाच865 ईस्वी (विक्रम संवत 922), महीना- वैशाख, पक्ष- शुक्लपक्ष, दिन-तेरस, वार-शनिवार, कोउजड़वा गाँव छोड़करपूर्व दिशा की ओर सपरिवार चल पड़े। चार कोस दूर एक टीबा जो किउजड़वा की सीमा से बाहर पड़ता था, पर गाड़ी रोक कर डेरा डाल दिया। इस प्रकार इसी दिन लाल सिंह लुहाच ने लुहाच गौत्र नाम की छड़ी इसी टिब्बा पर गाड़ कर प्रथम लुहाच गाँव की नींव रखी। आगे चल कर इसी जगह का नाम नाँधा गाँव पड़ा।


इसी लिए आज भी नाँधा गाँव के लुहाच गौत्र के लोग तेरस की पूजा करते हैं। इस जगह पर उस समय कोई बस्ती नहीं थी।यहाँ आकर अब लाल सिंह परिवार को वंश नहीं चलने की चिंता, ही पीने के पानी की कोई समस्याऔर ही किसी जाति विशेष के विरोध की चिंता थी।लाल सिंह का परिवार यहाँ सुख पूर्वक रहने लगा। पशुओं और खेती करने के लिए पीने का पानी भी मिल गया। कुआं रहट से खेत की सिचाई के लिए पर्याप्त पानी भी मिल गया।कृषि के लिए जमीन की कोई कमी नहीं थी। पशुओं और परिवार के लिए पानी कुछ दूर निचले इलाके में स्थित बावड़ी से पानी ऊंट गाड़ी से लाया जाता था। खेती के लिए वर्षा पर निर्भर रहना होता था। उस जमाने में नहर और नदी नहीं होती थी। इसी कारण लोग पानी की तलास में एक जगह से दूसरी जगह घुमकड़ की जिन्दगी जीते थे। लाल सिंह का परिवार भी अपनेपूर्वज, राजा नरदेव के 721 ईस्वी में देहांत के बाद से अब तक घुमकड़ का जीवन व्यतीत कर रहे थे। अब सब समस्याओं से निजात मिलते देख लाल सिंह ने हमेशा के लिए इसी जगह को अपना स्थाई ठिकाना बना लिया


टीबा जहां पर लाल सिंह ने लुहाच गौत्र के नाम सेध्वज सहित छड़ी गाड़ी थी उस जगह को आज भी नाँधा गाँव में खेड़ा के नाम से जाना जाता है। खेड़ा का हरियाणवी भाषा में अर्थ गाँव से होता है। इसका मतलब यह है कि इस गाँव की उत्पति इसी जगह से हुई थी। नाँधा गाँव का खेड़ा भी लुहाच गौत्र का है क्योंकि इस गाँव की नींव लुहाच गौत्र से पड़ी है।यह खेड़ा कई एकड़ जमीन में फेला हुआ था। इस खेड़े से कुछ दूर निचले इलाके में बावड़ी थी जहां बरसात के मौसम में पानी एकत्रित हो जाता था। आस पास के इलाके में यही पानी का स्रोत होता था जहां दूर दूर से लोग ऊंट गाड़ी पर पानी लेने आते थे।खेड़ा क्योंकि बहुत ऊंचाई पर था इस लिए वहाँ पर प्राकृतिक रूप से पानी एकत्रित होना असंभव था। लेकिन फिर भी लाल सिंह ने टीबा जिसे आज खेड़ा के नाम से जाना जाता है पर ही क्यों डेरा डाला ? इसका कारण यह रहा होगा कि प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़ से बचने के लिए इंसान हमेशा ऊंची जगह पर ही अपना बसेरा बनाता था। यही कारण है किआज किसी भी पुराने गाँव का मध्य का भाग सबसे ऊंचा मिलता है। यही सोच कर लाल सिंह ने निचले इलाके में स्थित बावड़ी के नजदीक बसने की बजाय ऊंचे टीबा को चुना।  


अब जीवन यापन की प्राथमिक आवश्यकता पानी की पूर्ति तो हो गई थी लेकिन खेती के लिए अब भी वर्षा पर ही निर्भर रहना पड़ता था। इसी समस्या को देखते हुए लाल सिंह परिवार ने टीबा के सबसे ऊंचे स्थान पर खुदाई करके एक कुआं खोद लिया। पानी मीठा काफी मात्र मेंमिला। परिवार की खुशी की कोई सीमा रही। कुछ दिन इसी पानी से चरस बना कर बैल की मदद से पानी खींच कर थोड़ा बहुत खेती करना शुरू कर दिया। बाद में इसे रहट में तबदील करके काफी बड़े भूभाग पर खेती की जाने लगी।


जाट रियासत कुचेसर


कुचेसर जाट रियासत का इतिहास अब से लगभग 250 वर्ष पहलेवजूद में आया था। कुचेसर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हापुड़ के नजदीक एक छोटा सा कस्बा है। 18 वीं शताब्दी के अन्त में यही कस्बा एक विख्यात जाट रियासत के रूप में उभरा और भारत की आजादी के समय तक इस पर दलाल गौत्र के लोगों का सम्राज्य रहा था। इसके अंतर्गत 360 गाँव आते थे जो कि जाट बाहुल्य क्षेत्र हुआ करता था। दलाल जाट गोत्र के भुआल, जगराम, जटमल और गुरबा नामक चार भाई थे जिन्होंने इस राज्य की नींव डाली थी।मुग़ल साम्राज्य जब जाटों और मराठों के प्रबल प्रताप केकारण पतन की ओर जा रहा था और जाट संघ के अनेक घरानों ने छोटी-बड़ी रियासतें स्थापित कर ली थीं।उस समय रोहतक जिले के मांडौठी गांव के दलाल वंश के चार जाट जिनके नाम ऊपर लिखे हैं, उत्तर प्रदेश में चले गए।भुआल,जगराम और जटमल ने चितसौना और अलीपुर में प्रथम बस्ती आबाद की जबकि चौथे भाई गुरबा ने परगना चंदौसी (जिला मुरादाबाद) पर अधिकार कर लिया।


भुआल के पुत्र मौजीराम थे। इनके दो पुत्र रामसिंह और छतरसिंह थे। छतरसिंह ने बहुत सा इलाका जीत लिया। छतरसिंह के दो पुत्र मगनीराम और रामधन थे। जब महाराजा जवाहरसिंह ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए दिल्ली पर चढ़ाई की तो उस समय छतरसिंह, मगनीराम और रामधन ने महाराजा  जवाहरसिंह की 25000 जाट सेना की बड़ी मदद की थी। दिल्ली के नवाब नजीबुद्दौला ने एक चाल चली। उसने छतरसिंह को अपने पक्ष में मिला लिया। उसको राव का खिताब दिया गया और साथ ही कुचेसर की जागीर और 9 परगने काचोर मारका ओहदा भी दिया।


छतरसिंह ने अपने पुत्रों और सैनिकों को महाराजा जवाहरसिंह से अलग कर लिया। दिल्ली की ओर से अलीगढ़ में उन दिनों असराफिया खां हाकिम था। इस युद्ध के बाद उसने कुचेसर पर चढ़ाई कर दी। उसको खतरा था कि कुचेसर के जाट बढ़ते ही गए तो अलीगढ़ को जीत लेंगे। इस युद्ध में दलाल जाट हार गए। राव मगनीराम और रामधन कैद कर लिये गये। कोयल के किले में उन्हें बन्द कर दिया गया, किन्तु वे दोनों भाई कैद से निकलनेमें सफल हो गये। इन दोनों ने पहले भरतपुर के महाराजा से अपनी गलती के लिए क्षमा याचना की फिर मुरादाबाद में सिरसी के मराठा हाकिम को प्रभावित किया, फिर मराठा और जाट सेनाओं के साथ मिलकर1782 ई० में कुचेसर पर चढ़ाई कर दी।


मुग़ल हाकिम इस आक्रमण से भयभीत होकर भाग निकला। मगनी राम और रामधन उसका पीछा करते रहे और अन्त मेंउसे पकड़करराजमहल लाया गया जहां उसका सिर कुचल दिया। इसी से किले का नाम कुचेसर पड़ गया। इस अवसर पर जाटों ने इस घटना का भारी समर्थन किया। इस प्रकार दलाल घराना इसरियासत कअअधिकारी बना और रियासत का नाम कुचेसर रखा गया।


राव मगनीराम अपनीदो पत्नियां और सात पुत्र छोड़कर स्वर्गवासी हो गया। कहा जाता है कि बहादुरनगर में एक खजाने का नक्शा छोड़ जाने पर विवाद होने से राव रामधन ने अपने दो-तीन भतीजों को मरवा डाला, शेष ईदनगर चले गए। नक्शे के अनुसार विशाल खज़ाना मिल जाने पर कुचेसर का भण्डार भरपूर हो गया। 1790 ई० में राव रामधन पूर्णरूप से कुचेसर के शासक बने। उस समय दिल्ली का बादशाह शाह आलम था। उसने सैदपुर, दतियाना, पूठ, सियाना, थाना औरफरीदा के विस्तृत क्षेत्र कुचेसर को ही इस्तमुरारी पट्टे पर दे दिए।


इस इस्तमुरारी पट्टे के बदले 40,000 मालगुजारी देनी होती थी। बाद में 1794 ईस्वी में अकबर शाह ने तथा 1803 ईस्वी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी इस इलाके पर कुचेसर का ही शासन स्वीकार कर लिया था। किन्तु अंग्रेजों का भविष्य अनिश्चित समझकर राव रामधन ने मालगुजारी करनी बन्द कर दी।इस पर अंग्रेज सरकार ने इन्हें कैद कर लिया। 1816 ईस्वी में मेरठ की जेल में इनकी मृत्यु हो गई। इनके पुत्र राव फतेहसिंह रियासत के मालिक बन गए। फतेहसिंह ने उदारतापूर्वक अपने चाचा के लड़कों का खान-पान मुक़र्रर कर दिया। उनको रियासत का कुछ भाग भी दे दिया। उनमें राव प्रतापसिंह भी थे। 1839 ईस्वी में राव फतेहसिंह का स्वर्गवास हो गया। उनके बाद उनके पुत्र बहादुरसिंह जी राज सिंहासन पर बैठा। इन्होंने 26 गांव खरीदकर रियासत में शामिल कर लिये। इनकी दो पत्नियां थीं, जाट स्त्री से लक्ष्मणसिंह वगुलाबसिंह और राजपूत स्त्री से उमरावसिंह पैदा हुए। लक्ष्मणसिंह का स्वर्गवास अपने पिता के ही आगे हो गया था। राव बहादुरसिंह के मरने पर राज का अधिकारी कौन बने इस बात पर काफी झगड़ा चला। यह भी कहा जाता है कि जाट बिरादरी के कुछ लोगों ने उमरावसिंह को दासी-पुत्र ठहरा दिया और गुलाबसिंह को राज्य का अधिकारी ठहराया। इस प्रकार गुलाबसिंह को राजा बनाया गया। सन् 1857 ईस्वी में गुलाबसिंह ने अंग्रेजों की खूब सहायता की। इसके बदले में ब्रिटिश सरकार ने उसको कई गांव तथा राजा साहब का खिताब प्रदान किया। राजा गुलाबसिंह का सन् 1859 ई० में स्वर्गवास हो गया। इन्होंने सियाना के समीप साहनपुर किले का निर्माण कराया था।

 

राजा साहब का कोई पुत्र था।एक पुत्री थी जिसका नाम बीबी भूपकुमारी था। रानी जसवन्तकुमारी के बाद उनकी पुत्री बीबी भूपकुमारी राजगद्दी पर बैठी। सन् 1861 में वह भी निःसंतान मर गई। भूपकुमारी की शादी बल्लभगढ़ के राजा नाहरसिंह के भतीजे राव खुशहालसिंह से हुई थी।  पत्नी की मृत्यु के बाद वह ही उत्तराधिकारी शासक हुए। किन्तु फतेहसिंह के चचेरे भाई प्रतापसिंह, उमरावसिंह ने अपने अधिकार का दावा किया। 1868 ईस्वी में मुकदमे के फैसले में निर्णय हुआ कि पांच आना राव प्रतापसिंह, छः आना राव उमरावसिंह और पांच आना खुशहालसिंह को बांट दिया जाये। राव उमरावसिंह ने अपनी लड़की की शादी खुशहालसिंह से कर दी। 1879 ईस्वी में खुशहालसिंह निःसंतान मर गया। इसलिए दोनों हिस्सों का प्रबन्ध उसके ससुर उमरावसिंह जी के हाथ में गया।


 सन् 1898 ईस्वीमें उमरावसिंह का भी स्वर्गवास हो गया। उनके तीन लड़के पहली रानी से और एक लड़का दूसरी रानी से था। सबसे बड़े राव गिरिराजसिंह को अपने भाइयों से 1/16 भागअधिक मिला। मुकदमेबाजी ने इस घराने को बरबाद कर रखा था। साहनपुर की रानी श्रीमती रघुवीरकुंवरी ने राजा गिरिराजसिंह जी तथा उनके भाइयों पर तीन लाख मुनाफे का अपना हक बताकर दावा किया था। पिछले बन्दोबस्त में पूरे 60 गांव और 16 हिस्से इस रियासत के जिला बुलन्दशहर में थे। इसकी मालगुजारी सरकार को सन् 1903 से पहले सलाना118292 रुपये दी जाती थी। रियासत साहनपुर और कुचेसर का वर्णन प्रायः सम्मिलित है। श्रीमान् कुंवर ब्रजराजसिंह रियासत साहनपुर के मालिक थे। इन रियासतों का संयुक्त प्रदेश के जाटों में अच्छा सम्मान था।


नाँधा से पश्चिमी उत्तर प्रदेश विस्थापन: पहला जत्था


नाँधा गाँव से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए पहला बड़ा विस्थापन लगभग 1775 ईस्वी में हुआ था। नाँधासे निकले इस पहले जत्थे में नाँधा गाँव की वंशावली के अनुसार पीढ़ी संख्या 29 के दुलारो राम के तीन बेटे थे। इनके नाम उग्रसैन, होराम और जोहरी थे। नाँधा की भोगोलिक स्थिति और पानी की किल्लत के चलते जीवन बसर मुश्किल हो गया था। नाँधा के लोगों ने सुन रखा था कि यमुना पार हापुड़ के पास कुचेसर नाम की एक जाट रियासत है जिस पर दलाल गौत्र के राजा का राज है। इसके अलावा यह सुन रखा था कि यह इलाका यमुना का तराई का इलाका है। पीने और खेती के लिए पानी की कोई कमी नहीं है।


इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए तीनों भाई उग्रसैन, होराम और जोहरी अपने परिवार के साथ ऊंट गाड़ी का कारवां बनाकर दिल्ली की तरफ चल पड़े। दिल्ली के पास यमुना को पार कर कुचेसर के किला से थोड़ी दूर नली हुसैनपुर गाँव पहुँचकर डेरा डाल दिया। इस गाँव में उस समय त्यागी ब्राह्मण समुदाय के लोग रहते थे। कुछ दिन यहाँ रुकने के बाद तीनों भाइयों ने और आगे चलने का मन बनाया। कारवां नली हुसैनपुर से कुछ दूरी पर एक वीरान जगह पर रुक गया। यह जगह इस परिवार को रहने के लिए सही लगी।


तीनों भाइयों ने योजना बनाई कि उग्रसैन का परिवार यहीं रहेगा। बाकी दो भाई ओर आगे बढ़ने के इरादे से कारवां बुलन्दशहर के पास भंडोली पहुँच गया। होराम ने यहाँ रुकने का मन बना लिया। अब जोहरी ने ओर आगे चलने की सोचा। जोहरी गहना होते हुए गंगा पार कर मुरादाबाद के पास ज्ञानपुर पहुँच गए। जमीन उपजाऊ खेती के लायक देख यहीं पर डेरा डाल दिया। इस प्रकार नाँधा से निकले पहले जत्था के तहत तीनों भाई क्रमश नंगला उग्रसैन, भंडोली और ज्ञानपुर में बस गए।


नाँधा से पश्चिमी उत्तर प्रदेश विस्थापन: दूसरा जत्था


नाँधा से निकला पहला जत्था के परिवार को लगभग 60 साल बीत चुके थे। तीनों परिवार बहुत खुशहाल जीवनयापन कर रहे थे। तीनों परिवार के लोग भी तक समय समय पर अपने पैतृक गाँव में आना जाना लगा रहता था। ये लोग नाँधा के लोगों के उत्तर प्रदेश की खुशहाली की कहानी सुनाया करते थे। नंगला उग्रसैन का परिवार कुचेसर के राजा से मिले सहयोग की गाथा भी सुनता था। साथ ही इन परिवार के लोग नाँधा के बाकी लोगों को भी कुचेसर के आसपास चलकर बसने के लिए बोलते थे। नाँधा के लोग पहले से ही जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहे थे इस लिए कुछ और लोग भी चलने के लिए त्यार हो गए।