इतिहास
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नीमली गाँव का इतिहास
नीमली गाँव हरियाणा के जिला चरखी दादरी का एक मध्यम आबादी वाला गाँव है। यह गाँव जिला मुख्यालय से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके पूर्व में मातनहेल, नौगाँव और रुलियावास, पश्चिम में दहरोड, दक्षिण में मालियावास और उत्तर में सातौर व सरूपगढ़ गाँव पड़तेहैं। सब गाँव से पक्की सड़क से संपर्क है। गाँव का कुल रकबा 12350 बीघा है जिस में से 7000 बीघा लुहाच गौत्र के लोगों के पास है। जमीन तकरीबन बरानी है।1970 के दशक के आरम्भ में बंसीलाल सरकार ने जवाहर लाल नेहरू नहर का निर्माण कराया था। उससे पहले पूरा रकबा बरानी होता था। खेती व पीने के लिए कुआं व रहट के पानी पर निर्भर रहना पड़ता था। इस नहर सेतीन रजबाहा निकाले गए जिन से लगभग 30% जमीन की ही सिचाई हो पाती है। इन रजबाहों के नाम हैं नीमली रजबाहा, काकरौली रजबाहा और पातूवास रजबाहा। बाकी की जमीन की सिचाई आज भी ट्यूबवेल के पानी से की जाती है। काफी रकबा में आज भी रेत के टीले हैं जिन पर फवारा प्रणाली से सिंचाई की जाती है। इसकी कुल आबादी लगभग 7000 लोगों की है जिसमें से लगभग 2000 लोग 450 परिवार के रूप में लुहाच गौत्र के रहते हैं।
लुहाच के आलावा इस गाँव में अहलावत, जाखड़, दलाल, सांगवान, धनखड़, ढीलन और फ़ौगाट गौत्र के लोग भी रहते हैं। इस गाँव में लुहाच का खेड़ा है। इसमें गाँव का सरपंच तकरीबन हर स्कीम में लुहाच गौत्र से ही चुना जाता है। इस गाँव में 6 जोहड़, 1 शिव मंदिर और एक दादा भैया का मंदिर है। दादा भैया की काफी मान्यता है। इसे सब धर्म व जाति के लोग मानते हैं। पहले यह धर्म स्थल गाँव के अंदर होता था। ऐसी मान्यता है कि दादा ने लोगों को कहा कि यहाँ साफ सफाई नहीं है और आबादी के बीच में है इस लिए मेरा मंदिर गाँव से बाहर बनाया जाए। इस लिए बाद में गाँव से बाहर दो किलोमीटर की दूरी पर वर्तमान मंदिर का निर्माण किया गया। इस मंदिर में ठंडी जोत जिसे सीली जोत भी कहते हैं लगती है। वैसे तो हर महीने की चौदस के दिन दादा की पूजा होती है लेकिन सालाना मेला होली से पहले वाली चौदस को लगता है। इसके अलावा 3 चौपाल, एक 12 वीं तक लड़कों का स्कूल, एक 8 वीं तक लड़कियों का स्कूल, 1 आयुर्वेदिक अस्पताल, 1 पशु अस्पताल, 1 दवाखाना और 5 आंगणबाड़ी भी हैं।
इस गाँव के प्रथम लुहाच पुरुष पैंतावास से आए थे। पैंतावास में भी लुहाच गौत्र का खेड़ा है लेकिन इस समय वहाँ पर कोई लुहाच आबादी नहीं है। पैंतावास में इस समय सांगवान गौत्र के लोग रहते है।पैंतावास के लुहाच पूर्वज नाँधा गाँव से आए थे। नाँधा गाँव की वंशावली के मुताबिक 19 वीं पीढ़ी के महाराज लुहाच के चार पुत्र थे। इनके नाम पहाड़ सिंह, भैराज सिंह ,गूगन सिंह और नारायण सिंह थे।
इसमें से नारायण सिंह नाँधा में ही रह गया जब कि भैराज सिंह मोहला गाँव चले गए। गूगन सिंह बाद में गिरावड़ गाँव चला गया। चौथा भाई पहाड़ सिंह भी लगभग 1500 ईस्वी में पानी की तलास में सपरिवार पैंतावास आ गया। उस समय पैंतावास में कोई आबादी नहीं थी। पहाड़ सिंह ने ही इस गाँव की नींव रखी थी इस लिए उसके नाम से मिलता-जुलता नाम पैंतावास पड़ा। यही कारण है कि इस गाँव का खेड़ा लुहाच गौत्र का है। आज भी इस गाँव में लुहाच गौत्र की कोई शादी नहीं होती। इस गाँव में लुहाच परिवार के लोग लगभग 100 साल तक रहे थे। इसी दौरान इस गाँव में अन्य गौत्र के लोग भी आकर बस गए। इनमें सांगवान गौत्र के लोगों की आबादी सबसे ज्यादा थी। वैसे तो पूरे पैंतावास का रकबा लुहाच गौत्र के नाम था लेकिन अन्य गौत्र के लोगों को खेती करने के लिए कुछ जमीन दे रखी थी। जींद रियासत के तहत इस गाँव की सीमा थी। राजा के पास भूमि कर जमा होता था।
नीमली गाँव की वंशावली के अनुसार 23 वीं पीढ़ी में ओनाड़ा राम लुहाच पूरे गाँव की जमीन का मालिक था। उसने सांगवान गौत्र के एक किसान को कर जमा करने की जिम्मेदारी दी जिसे उसने बखूबी से निभाया। क्योंकि पैंतावास के अलावा बाकी गाँव से भूमि कर की उगाही समय पर नहीं हो पाती थी इस लिए राजा ने पैंतावास के इस सांगवान किसान को पुरस्कृत करने के लिए बुलाया और उसके नाम सारे गाँव की जमीन कर दी। सांगवान किसान ने यह बात काफी दिन तक ओनाड़ा लुहाच से छुपा कर रखी। जब अगली बार कर उगाही सांगवान किसान के नाम से आई तब ओनाड़ा के परिवार को इसका पता चला जिससे उसको काफी दुख हुआ। ओनाड़ा ने उसको कहा कि आप ने हम से धोखा किया है इस लिए हम अब यहाँ नहीं रहेंगे।
इस प्रकार पहाड़ सिंह के वंशज 4 पीढ़ी पैंतावास में रहकर लगभग 1600 ईस्वी में ओनाड़ा के दोनों बेटे नींबू राम (नेम सिंह) व छू छू राम (छबीला राम) और उनका भानजा रुलिया राम नीमली आ गए। भाणजा रुलिया राम चहार गौत्र से था। नीमली में कुछ दिन रुककर वह भी नीमली से लगभग 2.5 किलोमीटर दूर जाकर रहने लगा। बाद में उसी के नाम पर उस जगह का नाम रुलियावास पड़ गया। आज रुलियावास एक मध्यम आबादी का गाँव है जिसमें चहार गौत्र के अलावा कुछ अन्य गौत्र के लोग भी रहते हैं। क्योंकि रुलियावास गाँव के प्रथम पुरुष रुलिया राम ने रखी थी इस लिए कालांतर में इसका नाम रुलियावास पड़ गया। रुलिया राम नीमली के लुहाच परिवार का भाणजा होने के कारण आज भी नीमली और रुलियावास के बीच भाईचारा का संबंध है और दोनों गाँव में कोई शादी नहीं होती है।
ओनाड़ा राम का छोटा बेटा छू छू राम उर्फ छबीला राम भी कुछ समय नीमली में रहने के बाद परिवार सहित छुछकवास जो कि उस समय एक मुस्लिम रियासत हुआ करती थी में रहने के इरादे से वहाँ आ गया। राजा से वहाँ रहने और परिवार के गुजारे के लिए कुछ जमीन मांगी जिसको राजा ने स्वीकृति नहीं दी। छू छू राम वहाँ से आगे झज्जर के नजदीक मारोत गाँव में आ गए और यहीं पर बस गए।
नीमली गाँव की वंशावली पीढ़ी संख्या 24 के मुताबिक नींबू राम उर्फ नेम सिंह के दो बेटे थाना राम और भाऊ राम थे। आज इन दोनों भाइयों के वंशज इस गाँव में रहते हैं। गाँव आज इन्हीं के नाम से दो भागों में जाना जाता है। थाना राम के नाम से थानाण और भाऊ के नाम से भावाण पाना बना। कालांतर में फिर इन पाना से छोटे छोटे मोहल्ले बन गए। थानाण से चैनापुरी, बिचलापुरी, लाईहापुरी, मोडापूरी और भावाण से छतरी वाला, सीलूपुरी और भोलापुरी मोहला बने। इस गाँव में शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा रहा है। खेती बाड़ी के अलावा सरकारी नौकरी खासकर सेना, पुलिस और राजकीय विभाग में ऊंचे पदों पर काफी लोग सेवारत हैं।
यह गाँव आड़िया पहलवान के नाम से भी जाना जाता है। आड़िया पहलवान अविवाहित था। उसके मुकाबले का दूर दूर तक कोई पहलवान नहीं था। वह बहुत निडर और एक लड़ाकू इन्सान था। कहा जाता है कि उसके जमाने में ओड़ जनजाति के लोग जो कि भेड़ बकरी व पशु पालन करते थे समय समय पर आकर गाँव में लूट पाट करते और बहू बेटियों को तंग करते थे। आड़िया पहलवान ने अकेले ही सब को मार भगाया। दूसरी कहावत के मुताबिक पास के गाँव से एक राजपूत पहलवान ने जाटों के प्रति अपशब्द बोलते हुए सब जाट पहलवानों को दंगल में आने के लिए ललकारा। आड़िया पहलवान ने उसको दंगल में ही कुश्ती करते वक्त पटक कर मार दिया था। इसके अलावा और भी आड़िया पहलवान के बहुत सारे किस्से हैं।
इस गाँव से समय समय पर कई गाँव में लोगों का विस्थापन होता रहा है। सबसे पहले भावाण पाना से 29 वीं पीढ़ी के बीरू राम लुहाच 1775 ईस्वी में सपरिवार रेवाड़ी खेड़ा में जाकर बस गए थे। उसके बाद नीमली के ही थानाण पाना से 34 वीं पीढ़ी के सरभू राम भी सपरिवार 1875 ईस्वी में कबूलपुर जाकर बस गए थे। इसी प्रकार थानाण पाना से ही नीमली की 32 वीं पीढ़ी के बाल्को राम भी सपरिवार 1839 ईस्वी में रानीला गाँव में जाकर बस गए थे।