शहीद दादा बरदेशराम का इतिहास
दिनेश लुहाच, एस डी एम महेन्द्रगढ़ से लुहाच इतिहास पर काफी चर्चा हुई। दिनेश लुहाच इतिहास के लिए काफी समय निकाल रहे हैं और जानकारी भी जुटा रहे हैं। उन्होंने जड़वा गांव में हमारे पूर्वजों (उस समय चौहान) और तंवर राजपूतों के बीच झगड़े की जानकारी खोज निकाली है जो कि नान्धा गांव के जग्गा रामेश्वर जी की पौथी जिसमें लुहाच परिवार का इतिहास कलमबध है को सही ठहराता है। उन्होंने बताया कि जड़वा गांव जो कि नान्धा का सीमावर्ती गांव है महेन्द्रगढ़ में पड़ता है जो कि एस डी एम दिनेश का जिम्मेदारी का इलाका पडता है। जड़वा नाम वास्तव में उजड़ गांव का बिगड़ा हुआ नाम है। इस गांव में जब हमारे पूर्वज और लुहाच गोत्र के संस्थापक लाल सिंह चौहान अपने परिवार समेत सिधपुर से जड़वा में आए तो इस गांव में तंवर गोत्र के चौहान रहते थे। कुछ समय वहां रहते हुए चौहान परिवार और तंवर गोत्र के लोगों के बीच दुश्मनी बहुत बढ़ गई। चौहान परिवार के लिए करो या मरो तक की नौबत आ गई। लाल सिंह परिवार ने एक योजना बनाई। गांव के तंवर गोत्र के लोगों से मित्रता दिखाना शुरू कर दिया। फिर जब हालात सामान्य हो गये तब उन्होंने सब तंवर लोगों को भोज के लिए अपने बाड़े में आमंत्रित किया। बाड़ा की चारदीवारी काफी उंची कर ली थी। जब सब लोग बाड़ा में एकत्रित थे तब आने जाने का रास्ता बन्द कर बाड़े में आग लगा दी। काफी लोग उसमें जल गये लेकिन काफी आग से जख्मी होकर बाड़ा से बाहर आने में सफल हो गये। चौहान परिवार अकेला था जबकि तंवर संख्या में ज्यादा थे। फिर दोनों पक्षों में तलवार व भालों से भयानक लड़ाई हुई। लाल सिंह के परिवार में वह खुद काफी वृद्ध हो चुका था। उसके दो बेटे लूंगा राम व बरदेश राम और दो पोत्र सेदो राम व बाला राम के अलावा दो स्त्रियाँ भी थी जिन्होंने लड़ाई में हिस्सा लिया। लाल सिंह का बड़ा बेटा बरदेश राम बहुत ही बहादुर, निडर व बलवान था। उसने अकेले में कई लोगों को मार डाला और आखिरी सांस तक लड़ता रहा और परिवार के नाम पर शहीद हो गया। गांव की स्त्रियाँ व बच्चे जो बचे थे गांव छोड़ कर भाग गये। गांव उजड़ गया। तब से सदियों तक आस पास के गांव भी इस गांव को उजड़ गांव के नाम से पुकारने लगे। लाल सिंह को पहले से ही माता शाकम्भरी ने श्राप दे रखा था कि जब तक आप अपना गोत्र व जाति चौहान राजपूत से बदली नहीं कर लेते आपको कहीं भी चले जाओ पीने के लिए खारा पानी ही मिलेगा। दूसरा जड़वा की लड़ाई के बाद एक विधवा ने श्राप दिया कि आपने हमारे गांव को खत्म कर दिया और इतनी औरतों को विधवा बना दिया और बच्चों को अनाथ बना दिया इस लिए इस पाप के लिए मै आपको श्राप देती हूँ कि आप का इस जगह पर रहते हुए वंश नहीं चलेगा। लाल सिंह इन दोनों श्राप से डर गये। वंश किसको अच्छा नहीं लगता। इस लिए उसने सपरिवार वहां से लगभग छः किलो मीटर दूर जाकर एक टीबा पर अपना ऊंट गाड़ा रोक दिया। यह जगह नान्धा मे खेड़ा के नाम से जानी जाती है। साथ ही अपने नाम से मिलता जुलता शब्द "लुहाच " गोत्र रखा और जाती राजपूत से जाट रखी। इस प्रकार वैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तेरस शनिवार के दिन इस जगह पर छड़ी गाड़ी थी। बाद में यही जगह नान्धा गांव के नाम से जानने लगा। कुछ सदी के बाद किसी कारणवश संभवतया पानी की कमी के कारण लोग धीरे धीरे आस पास निचले इलाके में घर बना कर रहने लगे। आज का नान्धा इसी निचले इलाके में है।